अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
34
अति॒ विश्वा॑न्यरुहद्गम्भी॒रो वर्षि॑ष्ठमरुहन्त॒ श्रवि॑ष्ठाः। उ॑श॒ती रात्र्यनु॒ सा भ॑द्रा॒भि ति॑ष्ठते मि॒त्र इ॑व स्व॒धाभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑। विश्वा॑नि। अ॒रु॒ह॒त्। ग॒म्भी॒रः। वर्षि॑ष्ठम्। अ॒रु॒ह॒न्त॒। श्रवि॑ष्ठाः। उ॒श॒ती। रात्री॑। अनु॑। सा। भ॒द्रा। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒ते॒। मि॒त्रःऽइ॑व। स्व॒धाभिः॑ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अति विश्वान्यरुहद्गम्भीरो वर्षिष्ठमरुहन्त श्रविष्ठाः। उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअति। विश्वानि। अरुहत्। गम्भीरः। वर्षिष्ठम्। अरुहन्त। श्रविष्ठाः। उशती। रात्री। अनु। सा। भद्रा। अभि। तिष्ठते। मित्रःऽइव। स्वधाभिः ॥४९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(गम्भीरः) गम्भीर पुरुष (विश्वानि) सब [विघ्नों] को (अति) लाँघकर (अरुहत्) ऊँचा हुआ है, और (श्रविष्ठाः) अति बलवान् पुरुष (वर्षिष्ठम्) अति चौड़े स्थान पर (अरुहन्त) चढ़े हैं। (उशती) प्रीति करती हुई (भद्रा) कल्याणी (सा) वह (रात्री) रात्री (अनु) निरन्तर (मित्रः इव) मित्र के समान, (स्वधाभिः) अपनी धारणशक्तियों के साथ (अभि तिष्ठते) सब ओर ठहरती है ॥२॥
भावार्थ
शान्तस्वभाव बलवान् पुरुषों ने संसार में ऊँचे स्थान पाये हैं, इसी प्रकार जो मनुष्य रात्रि अर्थात् कठिनाई को मित्रसमान जानकर सावधान रहते हैं, वे सब प्रकार के पोषणों को प्राप्त होते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(अति) उल्लङ्घ्य (विश्वानि) सर्वाण्यनिष्टानि (अरुहत्) आरूढवान् (गम्भीरः) शान्तः (वर्षिष्ठम्) उरुत्तमं स्थानम् (अरुहन्त) आरूढवन्तः। (श्रविष्ठाः) अतिशयेन श्रवस्विनः। बलिष्ठाः (उशती) कामयमाना (रात्री) रात्रीरूपं काठिन्यम् (अनु) निरन्तरम् (सा) प्रसिद्धा (भद्रा) कल्याणी (अभि) सर्वतः (मित्रः) सुहृत् (इव) यथा (स्वधाभिः) स्वधारणशक्तिभिः ॥
भाषार्थ
(गम्भीरः) प्रशान्त हुआ सूर्य (विश्वानि) पूर्व के सब भूखण्डों का (अति) अतिक्रमण करके (अरुहत्) पश्चिम के आकाश में उदित हुआ है। और (श्रविष्ठाः) श्रवणीय यशवाले तारागण (वर्षिष्ठम्) पूर्व के महाकाश में (अरुहन्त) उदित हुए हैं। (भद्रा) सुखदायिनी (सा रात्री) वह रात्री (अनु उशती) मानो हमारा निरन्तर कल्याण चाहती हुई, (स्वधाभिः) अपनी धारक और पोषक-शक्तियों समेत (अभि) हमारी ओर (तिष्ठते) आ स्थित हुई है। (इव मित्रः) जैसे कि कोई मित्र, अपने मित्र की सहायता के लिए, निज धारक और पोषक-सामग्री के साथ, आ उपस्थित होता है।
टिप्पणी
[गम्भीरः= शान्तः (उणा० ४.३६), महर्षि दयानन्द। वर्षिष्ठम्= वृद्धम्, प्रवृद्धम्। श्रविष्ठाः= श्रवः श्रवणीयं यशः (निरु० ११.१.९)। श्रविष्ठाः का अभिप्राय “नक्षत्र” भी सम्भव है, देखो—(अथर्व० १९.७.४)। भद्रा=भदि कल्याणे सुखे च। स्वधाभिः=स्व+धा (धारणपोषणयोः)।]
विषय
गम्भीर-श्रविष्ठ
पदार्थ
१. (गम्भीरः) = एक गम्भीर वृत्तिवाला पुरुष (विश्वानि) = सब विघ्नों को (अति अरुहत्) = साधकर ऊपर चढ़ता है-उन्नत होता है। इसीप्रकार (श्रविष्ठा:) = ज्ञानी पुरुष (वर्षिष्ठम) = विशालतम लोक, अर्थात् ब्रह्मलोक को (अरुहन्त) = आरूढ़ होते हैं-ये ब्रह्मलोक को प्राप्त करनेवाले होते हैं। २. उशती इन गम्भीर श्रविष्ठ पुरुषों के हित की कामना करती हुई, (सा रात्री) = वह रात्रि (अनु) = भद्रा इन गम्भीर अविष्ठ पुरुषों के लिए अनुकूलता से कल्याण करती हुई उस प्रकार (अभितिष्ठते) = स्थित होती है, (इव) = जैसेकि (मित्र:) = सूर्य (स्वधाभि:) = अपनी धारणशक्तियों के साथ स्थित होता है। जैसे दिन में इन गम्भीर विष्ठ पुरुषों का सूर्य कल्याण करता है-इनके अन्दर प्राणशक्ति का संचार करता है, इसी प्रकार रात्रि मलक्षरण व दीप्ति के द्वारा इनके लिए कल्याणकर होती है।
भावार्थ
हम मनों में गम्भीर व मस्तिष्क में अविष्ठ बनें। तब रात्रि व दिन का सूर्य दोनों ही हमारे लिए कल्याणकर होंगे।
विषय
‘रात्रि’ परम शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
अथवा—(गम्भीरः) गम्भीर, सर्वव्यापक, निगूढ परम मेघ, सबका परम गन्तव्य, महान् पुरुष ही (विश्वानि [विश्वा]) समस्त पदार्थों और लोकों के भी ऊपर (अति [अभि, अधि] असहत्) अधिष्ठातृ रूप से विराजता है। और (श्रविष्ठाः) श्रुति, ब्रह्मज्ञान या ऐश्वर्यवान्, विभूतिसंम्पन्न, युक्त योगी पुरुष उस (वर्षिष्ठम्) सबसे महान्, सबके प्रति आनन्दवर्षण करने हारे परमेश्वर तक (असहन्त) पहुंचते हैं। (उशती) उसी की कामना करने वाली (सा) वह (भद्रा) अति सुखकारिणी (अनु) उसके पीछे पीछे, उसके अनुकूल ही, उसकी वशवर्त्तिनी होकर, अपनी (स्वधाभिः) स्वधा, विश्व को धारण करने की शक्तियों सहित, कामनायुक्त स्त्री जिस प्रकार प्रियतम के पास आजाती है उसी प्रकार (मित्र इव) उसके मित्र के समान होकर (अभि तिष्ठते) उसके प्रति, उसके सन्मुख आ उपस्थित होती है। गम्भीर राजा सबके ऊपर शासक हो, विद्वान् लोग उसके आश्चय पर रहें। वशकारिणी राजशक्ति अपने धारण सामर्थ्यों से राजा प्रजा के मित्र के समान प्रकट होती है। अथवा—सायण, ह्विटनी आदि के सम्मत पाठों के अनुसार (अधि विश्वा न्यरुहत् गम्भीरा) गम्भीर रूप रात्रि, सबके अभिगमनीय या अति गम्भीर राजशक्ति, राष्ट्र के समस्त पदार्थों पर गम्भीर रात्रि के समान अपना अधिकार करती है। और वह श्रविष्ठा [शविष्ठा] अति अधिक बल, वीर्य और यश और अन्न से समृद्ध होकर (वर्षिष्ठं द्याम् अरुहत्) सबसे उत्तम प्रकाशमय सूर्य पर जैसे रात्रि आरूढ़ होती है और जिस प्रकार स्त्री अपने उज्ज्वल पति का आश्रय लेती है उसी प्रकार यह भी तेजस्वी बलवान राजा पर आश्रित रहती है। (उशती रात्रिः अनु या स्वधाभिः भद्राभिः वि तिष्ठते) कामनायुक्त स्त्री जिस प्रकार सुखदायी कल्याण प्रवृत्तियों सहित पति के समीप आती है उसी प्रकार वह राजशक्ति मुझ राजा के पास अपनी भद्र, सुखदायी अन्न और परम शक्तियों सहित (मित्र इव) मित्र के समान प्राप्त होती है।
टिप्पणी
अभिविश्वान्यरुहद् गम्भीरोद् वर्षिष्ठमरुहद् श्रविष्ठा। उशती रात्र्यवसानो भद्रानि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ इति ह्विटनिशोधितः पाठः। अतिविश्वान्यर्हद् गम्भीरो वर्षिष्ठमर्हति श्रविष्ठा। उशती रात्रित्र्यनु सा भद्रा वितिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ इति सायणाभिमतः। अतिविश्वान्यरुहृद् गम्भीरो वर्षिष्ठमरुहन्त श्रविष्ठाः। उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः॥ शं० पा०। ‘अवि’, ‘अविं’, ‘अभि’, ‘अधि’। ‘अरुहत्’, ‘अर्हत्’, ‘अरुहत्’, ‘अरुहत्’। ‘गम्भीरा’, ‘गम्भीरो’। ‘अरुहन्तः’, ‘अरुहत’, ‘अरुहन्त’, ‘अर्हति’ ‘द्या मरुहत’। ‘अश्रमिष्ठाः’, ‘श्रमिष्ठा’, ‘शविष्ठा’। ‘उशतींरात्र्यनुसामद्राहिं’—‘नुसाम-द्राहिं’ ‘अनुसाम-’ ‘द्राहि’, ‘प्राचि’, ‘प्राहिं’ इति नाना पाठाः, इद् वर्षिष्ठ मरुहृद श्रविष्ठा। उशतीरात्र्यवसानभद्राद् इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपथो भरद्वाजश्च ऋषी। रात्रिर्देवता। १-५, ८ त्रिष्टुभः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ पथ्यापंक्तिः। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
Profound darkness covers all things of the day’s world. Greatest stars ascend on top of the deep and generous vault of heaven. Noble night of exciting splendour abides by its own time like a friend with her own blessed powers of peace and restfulness.
Translation
Profound (dgrkness} has ascended vere a things ^: ', imightiest ones have ascended te highest skys ihai7 2 ae, night, full of desire, moves gradually (one). towards: woua, a friend with nice provisions (presents
Comments / Notes
Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation
Translation
The dignified man over-coming all the difficulties ascends to high states and the men possessing vigor mount the highest peak and nightfull of splendor and auspicious like friend compasses everything with its powers.
Translation
The Omnipresent God, Who lies hidden in the universe, surpasses all the created things. The Vedic scholars, possessing yogic powers reach Him, Who is the Best showerer of all blessings. The self-same Prakriti, desirous of His company, and peaceful stays all-around like a friend, with her sustaining powers.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अति) उल्लङ्घ्य (विश्वानि) सर्वाण्यनिष्टानि (अरुहत्) आरूढवान् (गम्भीरः) शान्तः (वर्षिष्ठम्) उरुत्तमं स्थानम् (अरुहन्त) आरूढवन्तः। (श्रविष्ठाः) अतिशयेन श्रवस्विनः। बलिष्ठाः (उशती) कामयमाना (रात्री) रात्रीरूपं काठिन्यम् (अनु) निरन्तरम् (सा) प्रसिद्धा (भद्रा) कल्याणी (अभि) सर्वतः (मित्रः) सुहृत् (इव) यथा (स्वधाभिः) स्वधारणशक्तिभिः ॥
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