अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
47
यो अ॒द्य स्ते॒न आय॑त्यघा॒युर्मर्त्यो॑ रि॒पुः। रात्री॒ तस्य॑ प्र॒तीत्य॒ प्र ग्री॒वाः प्र शिरो॑ हनत् ॥
स्वर सहित पद पाठयः। अ॒द्य। स्ते॒नः। आ॒ऽअय॑ति। अ॒घ॒ऽयुः। मर्त्यः॑। रि॒पुः। रात्री॑। तस्य॑। प्र॒ति॒ऽइत्य॑। प्र। ग्री॒वाः। प्र। शिरः॑। ह॒न॒त् ॥४९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अद्य स्तेन आयत्यघायुर्मर्त्यो रिपुः। रात्री तस्य प्रतीत्य प्र ग्रीवाः प्र शिरो हनत् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। अद्य। स्तेनः। आऽअयति। अघऽयुः। मर्त्यः। रिपुः। रात्री। तस्य। प्रतिऽइत्य। प्र। ग्रीवाः। प्र। शिरः। हनत् ॥४९.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(अद्य) आज (यः) जो (अघायुः) पाप चीतनेवाला (रिपुः) वैरी, (स्तेनः) चोर (मर्त्यः) मनुष्य (आ-अयति) आवे। (रात्री) रात्रि (प्रतीत्य) प्रतीति करके (तस्य) उसके (ग्रीवाः) गले को (प्र) सर्वथा, और (शिरः) शिर को (प्र) सर्वथा (हनत्) तोड़ डाले ॥९॥
भावार्थ
यदि रात्रि में चोर-डाकू आदि आकर लूट-खसोट मचावें, रक्षक गण उनको यथावत् दण्ड देकर प्रजा की रक्षा करें ॥९, १०॥
टिप्पणी
९−(यः) (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तेनः) चोरः (आयति) आङ्+इण् गतौ-लेट्। आगच्छेत् (अघायुः) पापचिन्तकः (मर्त्यः) मनुष्यः (रिपुः) शत्रुः (रात्री) (तस्य) शत्रोः (प्रतीत्य) प्रतीतिं प्रत्यक्षज्ञानं प्राप्य (प्र) सर्वथा (ग्रीवाः) कन्धरावयवान् (प्र) सर्वथा (शिरः) मस्तकम् (हनत्) लेटि रूपम्। हन्यात्। नाशयेत् ॥
भाषार्थ
(अघायुः) हत्या चाहने वाला, (यः) जो (रिपुः मर्त्यः) शत्रु मनुष्य, (स्तेनः) चोर बन कर, (अद्य) आज (आयति) आता है, (रात्री) रात्री (प्रतीत्य) उसे पूरी तरह से जान-पहिचान कर (तस्य) उसकी (ग्रीवाः) गर्दन-नाड़ियों को (प्र हनत्) तोड़ दे, (शिरः) और सिर को (प्रहनत्) तोड़ दे।
टिप्पणी
[पहिले ठीक प्रकार से जांच कर लेनी चाहिए कि अमुक आगत व्यक्ति वस्तुतः हमारी हत्या की इच्छा से चोर बन कर आया है। तदनन्तर उसके सिर तक को उतार देना भी वेदानुमोदित है। वेद कठोर दण्ड की आज्ञा देता है, ताकि पापकर्मों की पुनरावृत्ति न होती रहे।]
विषय
स्तेन व अघायु को वधदण्ड
पदार्थ
१. (अद्य) = अब-रक्षा की सुव्यवस्था होने पर (य: स्तेन: आयति) = जो चोर आता है अथवा (अघायु:) = पाप की कामनावाला (मर्त्यः रिपुः) = मनुष्य के रूप में शत्रु आता है, (रात्रि) = यह रात्रि देवता तस्य प्रतीत्य-उसके परोपद्रवकारीभाव को जानकर ग्रीवाः उसकी गर्दनों को प्रहनत्-छिन कर देती है तथा (शिर:) = उसके सिर को भी प्र [हनत्] छिन्न कर डालती है।
भावार्थ
रात्रि के समय रक्षण की व्यवस्था उत्तम हो। चोरियों व अन्य पापों के होने का सम्भव कम-से-कम कर दिया जाए। इन चोरों व अघायु पुरुषों को समाप्त कर देना ही ठीक है।
विषय
‘रात्रि’ परम शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (अद्य) आज (स्तेनः) स्तेन=चोर और डाकू (अघायुः) पाप, हत्या करने वाला, (रिपुः) शत्रु, (मर्त्यः) पुरुष (आयति) आता है (तस्य) उसके (प्रति इत्य) प्रति आकर या उसे पहचान कर (रात्री) दुष्टों को दण्ड देने वाली राजशक्ति उन चोर, पापी, हत्यारों और शत्रुओं की (ग्रीवाः) गर्दनों को और (शिरः) शिरों को (प्रहनत्) तोड़ दे।
टिप्पणी
(द्वि० तृ०) यो ममरात्रितुरूप आयति स संषिष्टो अपापति इति सायणाभिमतः। (च०) ‘हरत्’ इति सायणाभिमतः। युधस्तेनायुत्व अधायुमर्त्यो रिपुः (व०) ‘प्रगीयस्वप्र–’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपथो भरद्वाजश्च ऋषी। रात्रिर्देवता। १-५, ८ त्रिष्टुभः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ पथ्यापंक्तिः। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
Whoever the thief, the enemy, the man of evil intention and action, that comes now and prowls, may the Night, having known and identified him, catch him by the neck and break his head.
Translation
What thief comes today a malicious mortal enemy, may the night, knowing his intent full well, strike off his shoulders as well as the head.
Translation
Let this night become the means of encountering and smiting the neck and head of him whosoever a robber, evil mischievous enemy attack us now.
Translation
O night, whatever thief, the murderer and the inimical person comes, fully recognizing him, or approaching him, let his neck or head be shattered into pieces.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(यः) (अद्य) अस्मिन् दिने (स्तेनः) चोरः (आयति) आङ्+इण् गतौ-लेट्। आगच्छेत् (अघायुः) पापचिन्तकः (मर्त्यः) मनुष्यः (रिपुः) शत्रुः (रात्री) (तस्य) शत्रोः (प्रतीत्य) प्रतीतिं प्रत्यक्षज्ञानं प्राप्य (प्र) सर्वथा (ग्रीवाः) कन्धरावयवान् (प्र) सर्वथा (शिरः) मस्तकम् (हनत्) लेटि रूपम्। हन्यात्। नाशयेत् ॥
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