अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
50
सिं॒हस्य॒ रात्र्यु॑श॒ती पीं॒षस्य॑ व्या॒घ्रस्य॑ द्वी॒पिनो॒ वर्च॒ आ द॑दे। अश्व॑स्य ब्र॒ध्नं पुरु॑षस्य मा॒युं पु॒रु रू॒पाणि॑ कृणुषे विभा॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठसिं॒हस्य॑। रात्री॑। उ॒श॒ती। पीं॒षस्य॑। व्या॒घ्रस्य॑। द्वी॒पिनः॑। वर्चः॑। आ। द॒दे॒। अश्व॑स्य। ब्र॒ध्नम्। पुरु॑षस्य। मा॒युम्। पु॒रु। रू॒पाणि॑। कृ॒णु॒षे॒। वि॒ऽभा॒ती ॥४९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सिंहस्य रात्र्युशती पींषस्य व्याघ्रस्य द्वीपिनो वर्च आ ददे। अश्वस्य ब्रध्नं पुरुषस्य मायुं पुरु रूपाणि कृणुषे विभाती ॥
स्वर रहित पद पाठसिंहस्य। रात्री। उशती। पींषस्य। व्याघ्रस्य। द्वीपिनः। वर्चः। आ। ददे। अश्वस्य। ब्रध्नम्। पुरुषस्य। मायुम्। पुरु। रूपाणि। कृणुषे। विऽभाती ॥४९.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(उशती) प्रीति करती हुई (रात्री) रात्री ने (सिंहस्य) सिंह की, (पींषस्य) चूरण करनेवाले [हाथी] की, (व्याघ्रस्य) बाघ की और (द्वीपिनः) चीते की (वर्चः) कान्ति को, (अश्वस्य) घोड़े के (ब्रध्नम्) मूल [वेग] को और (पुरुषस्य) पुरुष की (मायुम्) ललकार को (आ ददे) ग्रहण किया है, (विभाती) चमकती हुई तू (पुरु) बहुत से (रूपाणि) रूपों को (कृणुषे) बनाती है ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य रात्रिरूप कठिनाई में सिंह आदि के समान पराक्रमी होते हैं, वे ही कीर्तिमान् और तेजस्वी होते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(सिंहस्य) (रात्री) (उशती) कामयमाना (पींषस्य) पाघ्राघ्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति बाहुलकात् शप्रत्ययः। तस्य सार्वधातुकत्वाद् नुम्, छान्दसो दीर्घः। संचूर्णकस्य गजस्य (व्याघ्रस्य) हिंसकजीवविशेषस्य (द्वीपिनः) व्याघ्रभेदस्य (वर्चः) कान्तिम् (आददे) आहृतवती। प्राप्तवती (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (ब्रध्नम्) मूलम्। वेगम् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायुम्) माङ् शब्दे-उण्, युक् च। शब्दम् (पुरु) पुरूणि (रूपाणि) (कृणुषे) करोषि (विभाती) वि+भा दीप्तौ-शतृ। विशेषेण भासमाना ॥
भाषार्थ
(रात्री उशती) रात्री मानो चाहती हुई सी, (सिंहस्य, पींषस्य, व्याघ्रस्य, द्वीपिनः) शेर के, पीस देनेवाले अर्थात् पैरो तले रोन्ध देनेवाले हाथी के, बाघ और चीते के (वर्चः) तेज को (आ ददे) हर लेती है। (अश्वस्य) अश्व के (ब्रध्नम्) प्रवृद्ध वेग को, और (पुरुषस्य) पुरुष की (मायुम्) बोलचाल को भी हर लेती है। हे रात्री! तू (विभाती) रात्रिकाल में चमकती हुई (पुरु रूपाणि) अपने नानारूपों को (कृणुषे) प्रकट करती है।
टिप्पणी
[ब्रध्नम्= अथर्व ६.३८.४ में “अश्वस्य वाजे पुरुषस्य मायौ” पाठ है। तदनुसार “ब्रध्न” पद द्वारा “वाज” अर्थात् “वेग” अर्थ प्रतीत होता है। ब्रध्न= प्रवृद्ध, महान्। पुरु रूपाणि= नक्षत्र, ग्रह, तारागण आदि नाना रूप। मायुः=वाक् (निघं० १.११)।]
विषय
सिंह आदि के तेज का अपहरण
पदार्थ
१. (उशती) = सबके हित की कामना करती हुई, रक्षा की उत्तम व्यवस्थावाली (रात्री) = रात्रिदेवता (सिंहस्य) = शेर के (पींषस्य) = पीस डालनेवाले गजयूथ के (व्याघ्रस्य) = व्याघ्र के और (द्वीपिन:) = चीते के (वर्च:) = तेज को (आददे) = अपहत कर लेती है। रक्षा की उत्तम व्यवस्था होने पर ये हिंस्त्र प्राणी प्रजाओं व गवादि पशुओं को हानि नहीं पहुँचा सकते । २. यह (रात्री अश्वस्थ) = घोड़े के (बध्नम्) = मूल को, अर्थात् वेग को [वेग ही घोड़े का मौलिक गुण है] अपहृत कर लेती है, अर्थात् अन्धकार के कारण घोड़ों का आवागमन रुक जाता है। (पुरुषस्य मायुम्) = पुरुष के शब्द को भी अपहत कर लेती है। सब पुरुषों के निद्रावशीभूत हो जाने पर वाग-व्यवहार रुक ही जाता है। इसप्रकार हे रात्रि! (विभाती) = तारों से चमकती हुई तु (पुरु रूपाणि) = नानाविध रूपों को (कृणुषे) = करती हैं।
भावार्थ
रात्रि में रक्षा की उत्तम व्यवस्था होने पर सिंहादि के तेज का अपहरण-सा हो जाता है, वे हानि नहीं कर पाते। अश्वों की गति रुक जाती है। पुरुषों का वाग-व्यापार थम जाता है, एवं रात्रि के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं।
विषय
‘रात्रि’ परम शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(उशती रात्री) सबको वश करने वाली रात्री अर्थात् राजशक्ति, उत्तम पुरुषों को सुख और दुष्ट पुरुषों को दण्ड देने वाली रात्रि (सिंहस्य) सिंह के (पींषस्य [पिशस्य, पिषस्य, पीषस्य ]) सबको चूर्ण कर देने वाले हाथी और (व्याघ्रस्य) व्याघ्र और (द्वीपिनः) चीते के भी (वर्चः) तेज को (आददे) ग्रहण कर लेती है। और वही (विभाती) नाना प्रकार से प्रकाशित होने वाली, व्यापक, आशुगति करने वाले पदार्थों को (बुघ्नं [ब्रघ्नं]*) बांधने या सूर्य के मूल स्थान या केन्द्र में स्थापन और (पुरुषस्य) देहपुरी में निवास करने वाले आत्मा के (मायुम्) वाक्शक्ति का निर्माण (कृणुषे) करती है। अथवा—(अश्वस्य बुघ्नं) सूर्य की शक्ति से मेघ को और (पुरुषस्य मायुम्) पुरुष की शक्ति से वाणी को उत्पन्न करती है। अथवा (अश्वस्य बुध्नं) सूर्य के लिये महान् आकाश को और पुरुष के ज्ञान के लिये ‘मायु’ अर्थात् वाणी और वेदवाणी को उत्पन्न करती है। और उनके भी (पुरु रूपाणि कृणुषे) नाना रूप (कृणुषे) बनाती है रचती है। अर्थात् राजशक्ति शिक्षा का प्रबन्ध करती है और नाना प्रकार के (रूपाणि) शिल्पसाध्य पदार्थों को उत्पन्न करती है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘पीषस्य’, ‘पीषस्य’, पीपस्य, इति नाना पाठाः। ण्शिस्व इति ह्विटनिसम्मतः। पिषस्य, (तृ०) ‘बुध्नं’, इति सायणाभिमतः। ‘निपस्य’ इति पैप्प० सं०। (द्वि०) ‘वर्चादधे’ (च०) ‘कृणुषी’ ‘विभातीः’ इति प्रायः। *‘बन्धेर्ब्रधिबुधी च’ इत्युष्णादिर्नक् प्रत्ययः। व्रध्नः बुध्नः। व्रध्नो महान सूर्यो वा बुध्नो मेघोमूलमन्तरिक्षं वा। इत्युपादि द०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपथो भरद्वाजश्च ऋषी। रात्रिर्देवता। १-५, ८ त्रिष्टुभः। ६ आस्तारपंक्तिः। ७ पथ्यापंक्तिः। १० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
The exciting night has taken over the rumble of the lion’s roar, the stag’s fleetness, the tiger’s growl, the elephant’s peal, the horse’s great perseverance, and man’s challenge. Thus do you, O splendid Night, assume and hold in your unfathomable womb many forms of being and its variety.
Translation
The might, full of passion, assumes the vigour en. hon. elephant. tiger und of leopard, the colour of herse and the ` voice af man C siumng one; you gera nonam a form
Comments / Notes
Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation
Translation
The night having control over all assumes the vigour of lion, all-crushing elephant and leopard and this splendid one assuming the neighing of horse and the wild cry of man takes many forms.
Translation
O Ratri, thou covetous of various powers has taken up the strength of the lion, the mighty power of the elephant, the ferocity of the tiger and the daring of the leopard, the speed of the horse, the powerful speech of the man. In fine thou shinest with splendor, assuming various forms in this world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(सिंहस्य) (रात्री) (उशती) कामयमाना (पींषस्य) पाघ्राघ्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति बाहुलकात् शप्रत्ययः। तस्य सार्वधातुकत्वाद् नुम्, छान्दसो दीर्घः। संचूर्णकस्य गजस्य (व्याघ्रस्य) हिंसकजीवविशेषस्य (द्वीपिनः) व्याघ्रभेदस्य (वर्चः) कान्तिम् (आददे) आहृतवती। प्राप्तवती (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (ब्रध्नम्) मूलम्। वेगम् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायुम्) माङ् शब्दे-उण्, युक् च। शब्दम् (पुरु) पुरूणि (रूपाणि) (कृणुषे) करोषि (विभाती) वि+भा दीप्तौ-शतृ। विशेषेण भासमाना ॥
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