अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
कामे॑न मा॒ काम॒ आग॒न्हृद॑या॒द्धृद॑यं॒ परि॑। यद॒मीषा॑म॒दो मन॒स्तदैतूप॑ मामि॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठकामे॑न। मा॒। कामः॑। आ। अ॒ग॒न्। हृद॑यात्। हृद॑यम्। परि॑। यत्। अ॒मीषा॑म्। अ॒दः। मनः॑। तत्। आ। ए॒तु॒। उप॑। माम्। इ॒ह ॥५२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
कामेन मा काम आगन्हृदयाद्धृदयं परि। यदमीषामदो मनस्तदैतूप मामिह ॥
स्वर रहित पद पाठकामेन। मा। कामः। आ। अगन्। हृदयात्। हृदयम्। परि। यत्। अमीषाम्। अदः। मनः। तत्। आ। एतु। उप। माम्। इह ॥५२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
विषय - प्रेम की पारस्परिकता
पदार्थ -
१. (कामेन) = इच्छा से (काम:) = इच्छा (मा) = मुझे (आगन्) = प्राप्त हुई है। वह इच्छा जोकि (हृदयात्) = एक हृदय से (हृदयं परि) = दूसरे हृदय के प्रति हुआ करती है। दूसरा व्यक्ति मुझे चाहता है तो मैं भी उसे चाहनेवाला बनता है। उसकी कामना ने मुझमें भी कामना को पैदा किया है। वस्तुतः प्रेम पारस्परिक ही हुआ करता है। २. (यत्) = जो (अमीषाम्) = उनका-मुझसे दूर स्थित ज्ञानियों का (अदः मन:) = मुझ से दूर गया हुआ मन है (तत् माम् इह उप आ एतु) = वह मुझे यहाँ समीपता से प्राप्त हो। मैं ज्ञानियों का प्रिय बनें।
भावार्थ - प्रेम पारस्परिक हुआ करता है। मैं ज्ञानियों का प्रिय बनूं-मुझे ज्ञानी प्रिय हों।
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