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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
अव्य॑सश्च॒ व्यच॑सश्च॒ बिलं॒ वि ष्या॑मि मा॒यया॑। ताभ्या॑मु॒द्धृत्य॒ वेद॒मथ॒ कर्मा॑णि कृण्महे ॥
स्वर सहित पद पाठअव्य॑सः। च॒। व्यच॑सः। च॒। बिल॑म्। वि। स्या॒मि॒। मा॒यया॑। ताभ्या॑म्। उ॒त्ऽहृत्य॑। वेद॑म्। अथ॑। कर्मा॑णि। कृ॒ण्म॒हे॒ ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव्यसश्च व्यचसश्च बिलं वि ष्यामि मायया। ताभ्यामुद्धृत्य वेदमथ कर्माणि कृण्महे ॥
स्वर रहित पद पाठअव्यसः। च। व्यचसः। च। बिलम्। वि। स्यामि। मायया। ताभ्याम्। उत्ऽहृत्य। वेदम्। अथ। कर्माणि। कृण्महे ॥६८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
विषय - 'हृदय गुहा' के अन्धकार को दूर करना
पदार्थ -
१. (अव्यस: च) = [अव्यचस:] अव्याप्त, परिच्छिन्न जीवात्मा के (व्यचसः च) = और व्याप्त परमात्मा के (बिलम्) = उपलब्धिस्थान हृदय को (मायया) = अज्ञान से (विष्यामि) = विमुक [विरहित] करता हूँ। हृदय के अज्ञानावृत होने पर कर्तव्याकर्त्तव्य विभाग ही नहीं होता, अत: कार्याकार्य विभाग के ज्ञान के शत्रुभूत इस मूडभाव को दूर करता हूँ। २. (ताभ्याम्) = जीवात्मा व परमात्मा के ज्ञान के हेतु से (वेदम्) = ज्ञान को (उद्धृत्य) = सम्पादित करके (अथ) = अब उस ज्ञान के अनुसार (कर्माणि कृण्महे) = हम अपने कर्त्तव्यकर्मों को करते हैं। ज्ञानपूर्वक कर्म करना ही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।
भावार्थ - हम अपनी हृदय-गुहा को अज्ञान से मुक्त करके आत्मा व परमात्मा का दर्शन करें। इसी उद्देश्य से ज्ञानपूर्वक कर्मों में व्याप्त रहें।
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