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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 9/ मन्त्र 13
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    यानि॒ कानि॑ चिच्छा॒न्तानि॑ लो॒के स॑प्तऋ॒षयो॑ वि॒दुः। सर्वा॑णि॒ शं भ॑वन्तु मे॒ शं मे॑ अ॒स्त्वभ॑यं मे अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यानि॑। कानि॑। चि॒त्। शा॒न्तानि॑। लो॒के। स॒प्त॒ऽऋ॒षयः॑। वि॒दुः। सर्वा॑णि। शम्। भ॒व॒न्तु॒। मे॒। शम्। मे॒। अ॒स्तु॒। अभ॑यम्। मे॒। अ॒स्तु॒ ॥९.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यानि कानि चिच्छान्तानि लोके सप्तऋषयो विदुः। सर्वाणि शं भवन्तु मे शं मे अस्त्वभयं मे अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यानि। कानि। चित्। शान्तानि। लोके। सप्तऽऋषयः। विदुः। सर्वाणि। शम्। भवन्तु। मे। शम्। मे। अस्तु। अभयम्। मे। अस्तु ॥९.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 13

    पदार्थ -
    १. (लोके) = लोक में (यानि कानिचित्) = जो कोई भी (शान्तानि) = शान्तिदायक कर्म हैं, (सप्तऋषय:) = मेरे सप्त ऋषि-'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख'–उनको (विदुः) = जानते हैं। मेरे ये सात ऋषि उन्हीं को अपनाने का प्रयत्न करते हैं। २. इस प्रकार (ये सर्वाणि) = सब में (शं भवन्तु) = मेरे लिए शान्ति देनेवाले हों। (मे शम् अस्तु)= मेरे लिए शान्ति हो। मे (अभयम् अस्तु) = मेरे लिए निर्भयता हो।

    भावार्थ - मैं इन कान आदि सप्त ऋषियों से शान्त कर्मों को करता हुआ शान्ति व निर्भयता प्राप्त करूँ।

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