अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - द्विपदासुरी गायत्री
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
अग्ने॑ वैश्वानर॒ विश्वै॑र्मा दे॒वैः पा॑हि॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । वै॒श्वा॒न॒र॒ । विश्वै॑: । मा॒ । दे॒वै: । पा॒हि॒ । स्वाहा॑ ॥१६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने वैश्वानर विश्वैर्मा देवैः पाहि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । वैश्वानर । विश्वै: । मा । देवै: । पाहि । स्वाहा ॥१६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
विषय - सब दिव्य गुण
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = अग्रणी (वैश्वानर) = [विश्वान् नरान् नयति] सबके सञ्चालक प्रभो! (मा) = मुझे (विश्वैः देवैः) = सब दिव्य गुणों को प्राप्त कराके (पाहि) = रक्षित कीजिए। वस्तुत: प्रभु-स्मरण से सब दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है। २. (स्वाहा) = मेरी वाणी सदा यही प्रार्थना करे। इसी जप को करता हुआ इसी बात को मैं अपने जीवन में घटानेवाला बनूं। महादेव का स्मरण करता हुआ सब देवों को प्रास करने का अधिकारी बनें।
भावार्थ -
प्रभु अग्नि है, वैश्वानर हैं। वे मुझे आगे ले-चलते हुए सब दिव्य गुणों से युक्त करेंगे।
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