अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - एदपदासुरीत्रिष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
प्राणा॑पानौ मृ॒त्योर्मा॑ पातं॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्राणा॑पानौ । मृ॒त्यो: । मा॒ । पा॒त॒म् । स्वाहा॑॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणापानौ मृत्योर्मा पातं स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणापानौ । मृत्यो: । मा । पातम् । स्वाहा॥१६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
विषय - दीर्घजीवन
पदार्थ -
१. (प्राणापानौ) = हे प्राण और अपान! [प्राक् ऊर्ध्वमुखः अनिति चेष्टत इति प्राणः, अप आवमुखः अनिति इति अपान:] आप दोनों (मा) = मुझे (मृत्यो:) = मृत्यु से (पातम्) = बचाओ। 'अपान' दोषों को दूर करता है और प्राण शक्ति का सञ्चार करता है। इसप्रकार प्राणापान की क्रिया से हम मृत्यु का शिकार नहीं होते। २. (स्वाहा) = 'स्वा वाग् आह' [तै० २.१.२.३]। मेरी वाणी सदा यही प्रार्थना करनेवाली हो। मैं सदा अपने को इसीप्रकार आत्मप्रेरणा दूँ कि प्राणापान कि शक्ति के वर्धन से मैं मृत्यु को अपने से दूर रक्षंगा।
भावार्थ -
प्राणापान की शक्ति के वर्धन से हम दीर्घजीवी बनें। ये प्राण और अपान हमें मृत्यु व रोगों से बचाते हैं।
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