अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - त्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त
यथा॑ भू॒तं च॒ भव्यं॑ च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । भू॒तम् । च॒ । भव्य॑म् । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । भूतम् । च । भव्यम् । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
विषय - भूत और भव्य
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (भूतं च भव्यं च) = भूत और भविष्यत् (न बिभीत:) = न डरते हैं और (न रिष्यत:) = न हिंसित होते हैं, (एव) = इसीप्रकार (मे प्राण) = हे मेरे प्राण! तू भी (मा बिभे:) = भयभीत न हो। २. 'भूत' समास हो चुका है, 'भविष्यत्' अभी है ही नहीं, अत: इन दोनों में भय का निवास न होकर, इसका सदा वर्तमान में ही निवास होता है। वस्तुत: जो व्यक्ति भूत का विचार करके उससे शिक्षा ग्रहण करता हुआ भविष्यत् का कार्य-क्रम निर्धारित करता है, उसे वर्तमान में कभी भयभीत नहीं होना पड़ता। 'भूत' से सीखना, 'भविष्य' के लिए दृढ़ संकल्प करना ही निर्भयता व अहिंस्यता का रहस्य है। ३. इसप्रकार हम अपने वर्तमान को भूत और भविष्य से जोड़कर चलेंगे तो भय से बचे रहेंगे।
भावार्थ -
हम भूत से भविष्यत् का निर्माण करनेवाले बनें। भूत से शिक्षा लेकर वर्तमान में सन्मार्ग का आक्रमण करते हुए भविष्य को उज्ज्वल बनाएँ।
विशेष -
विशेष-सारा सूक्त बड़ी सुन्दरता से निर्भयता व अहिंस्यता के साधनों का उपदेश करके उत्तम जीवन का मार्ग दिखला रहा है। अगले सूक्त में भी इस उत्तम जीवन का चित्रण है -