अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - त्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त
यथा॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । ब्रह्म॑ । च॒ । क्ष॒त्रम् । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । ब्रह्म । च । क्षत्रम् । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
विषय - ब्रह्म और क्षत्र
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (ब्रह्म च क्षत्रं च) = ज्ञान और बल परस्पर मिले हुए (न बिभीत:) = न भयभीत होते हैं और (न) = न ही (रिष्यतः) = हिंसित होते हैं, (एव) = इसीप्रकार (मे प्राण) = हे मेरे प्राण! तू (मा बिभे:) = भयभीत मत हो। २. एक राष्ट्र में ब्राह्मणों व क्षत्रियों का समन्वय आवश्यक है। केवल
अथ द्वितीयं काण्डम् ब्राह्मणोंवाला राज्य सुरक्षित नहीं होता और केवल क्षत्रियोंवाला राज्य कभी उन्नत नहीं हो पाता आपस के झगड़ों से ही वह समास हो जाता है। शरीर में जैसे ज्ञान व बल दोनों की आवश्यकता है, उसी प्रकार राष्ट्र में ब्राह्मणों व क्षत्रियों की उपयोगिता है। ३. हम अपने जीवनों में ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व दोनों का समन्वय करके निर्भय बनें और अहिंसित हों।
भावार्थ -
निर्भयता व अहिंस्यता के लिए ब्राह्मणत्व व क्षत्रित्व का मेल आवश्यक है। क्षत्र व बल द्वारा हम कर्म करते हैं तो ब्रह्म व ज्ञान उन कर्मों को पवित्र कर देता है।
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