अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - त्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त
यथा॒ द्यौश्च॑ पृथि॒वी च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । द्यौ: । च॒ । पृ॒थि॒वी । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । द्यौ: । च । पृथिवी । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
विषय - घलोक और पृथिवीलोक
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (द्यौः च पृथिवी च) = युलोक और पृथिवीलोक (न बिभीत:) = भयभीत नहीं होते और अतएव (न रिष्यत:) = हिंसित नहीं होते। (एव) = इसीप्रकार (मे प्राण) = हे मेरे प्राण! तू भी (मा) = मत (विभे:) = डर । २. धुलोक वृष्टि के द्वारा पृथिवी का पोषण करता है और पृथिवी पदार्थों को धुलोक में भेजती है। ये दोनों लोक इसीप्रकार परस्पर सम्बद्ध हैं, जैसे शरीर में 'मस्तिष्क और शरीर'। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है और मस्तिष्क का स्वास्थ्य शरीर को स्वस्थ बनाये रखता है। जैसे एक घर में बच्चों के माता-पिता का परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार धुलोक 'पिता' है और पृथिवी माता । मस्तिष्क व शरीर के समन्वय से जीवन उत्तम बनता है। माता-पिता के समन्बय में सन्तान सुन्दर होती है। इसीप्रकार धुलोक व पृथिवी लोक के सम्मिलित होकर कार्य करने पर दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं रहता। मिले हुए धुलोक व पृथिवीलोक हिंसित नहीं होते। ३. जिस प्रकार मिले हुए द्युलोक व पृथिवीलोक भयरहित व अहिसित है, इसीप्रकार मेरा प्राण भी निर्भय व अहिंसित हो। भय में ही हिंसा है। भय शरीर को विध्वस्त करता हुआ मस्तिष्क को भी समाप्त कर देता है।
भावार्थ -
मेरा प्राण 'धुलोक व पृथिवीलोक' की भाँति निर्भय हो।
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