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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - प्राणः, अपानः, आयुः छन्दः - त्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - अभय प्राप्ति सूक्त

    यथाह॑श्च॒ रात्री॑ च॒ न बि॑भी॒तो न रिष्य॑तः। ए॒वा मे॑ प्राण॒ मा बि॑भेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अह॑: । च॒ । रात्री॑ । च॒ । न । बि॒भी॒त: । न । रिष्य॑त: । ए॒व । मे॒ । प्रा॒ण॒ । मा । बि॒भे॒: ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाहश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अह: । च । रात्री । च । न । बिभीत: । न । रिष्यत: । एव । मे । प्राण । मा । बिभे: ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यथा) = जैसे (अहः च रात्री च) = दिन और रात (न बिभीत:) = नहीं डरते हैं और परिणामत: (न रिष्यत:) = न ही हिंसित होते हैं, (एव) = इसीप्रकार (मे प्राण) = हे मेरे प्राण! (मा बिभे:) = तु भयभीत मत हो। २. दिन और रात्रि परस्पर सम्बद्ध हैं। दिन का सूर्य अस्त होता हुआ रात्रि के समय अपने प्रकाश को अग्नि में रख देता है और दिन का प्रारम्भ होने पर अग्नि अपने प्रकाश को पुनः सूर्य को लौटा देती है। इसप्रकार परस्पर सम्बद्ध ये दिन-रात निर्भय व अहिंसित हैं। दिन में जितना अधिक श्रम किया जाए, रात्रि उतनी ही अधिक रमयित्री हो जाती है। दिन 'अहन्' हो। इसका एक क्षण भी (हत) = विनष्ट न किया जाए तो रात्रि सुषुप्ति का आनन्द देती है। रात्रि में नींद ठीक आ जाए तो दिन में मनुष्य जागृति के साथ कार्य करता है एवं परस्पर सम्बद्ध ये दिन और रात निर्भय व अहिंसित हैं। हमारा प्राण भी इसीप्रकार निर्भय व अहिंसित हो। ३. हम दिन व रात्रि के सम्बन्ध का ध्यान रखते हुए अपने प्राण को दिन व रात्रि की सन्धिवेला में वशीभूत करने का प्रयत्न करें। ऐसा करने से यह प्राण निर्भय और अहिंसित होगा।

    भावार्थ -

    हम दिन व रात्रि के गुणों को धारण करते हुए निर्भय व अहिंसित जीवनवाले बनें।

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