अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अग्ने॒ यत्ते॒ऽर्चिस्तेन॒ तं प्रत्य॑र्च॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । यत् । ते॒ । अ॒र्चि: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । अ॒र्च॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यत्तेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । यत् । ते । अर्चि: । तेन । तम् । प्रति । अर्च । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
विषय - अर्चि-ज्ञानज्वाला
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = ज्ञान की ज्योति से दीस प्रभो! (यत्) = जो (ते) = आपकी (अर्चि:) = ज्ञान की ज्वाला है, (तेन) = उससे (तं प्रति अर्च)) = उसके अन्दर उस ज्वाला को जगाइए, जिसमें उसका सब द्वेष दग्ध हो जाए। यह ज्वाला उसमें जगाइए (य:) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हमसे द्वेष करता है और परिणामत: (यम्) = जिससे (वयम्) = हम (द्विष्मः) = प्रेम नहीं कर पाते [द्विष अप्रीती] । २. गतमन्त्र में वर्णित हरण के लिए आवश्यक है कि उस द्वेष करनेवाले के हृदय में ज्ञान की ज्वाला दीप्त की जाए। द्वेष इसी ज्वाला में भस्मीभूत होगा। अज्ञान में ही द्वेष पनपता है। ज्ञान वह अग्नि है, जिसमें सब अशुभ वासनाएँ दग्ध हो जाती हैं।
भावार्थ -
ज्ञान की ज्वाला में द्वेष की भावनाएँ दग्ध हो जाएँ। अग्नि हमारे हृदय में ज्ञानाग्नि को दीप्त करे और वहाँ यह ज्ञानज्वाला सब वासनामल को भस्म कर दे।
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