अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अग्ने॒ यत्ते॒ तेज॒स्तेन॒ तम॑ते॒जसं॑ कृणु॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । यत् । ते॒ । तेज॑: । तेन॑ । तम् । अ॒ते॒जस॑म् । कृ॒णु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यत्ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । यत् । ते । तेज: । तेन । तम् । अतेजसम् । कृणु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
विषय - तेजस्
पदार्थ -
१. है (अग्ने) = अग्नि के समान तेजस्वी प्रभो! (यत्) = जो (ते) = आपका (तेज:) = तेज है, (तेन) = उसके द्वारा (तम्) = उसे (अतेजसम्) = तेजहीन (कृणु) = कीजिए, (य:) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके साथ द्वेष करता है (च) = और (यम्) = जिसे (वयम्) = हम भी (द्विष्मः) = अप्रीति योग्य समझते हैं। २. राष्ट्र में राजा अग्नि है। यह राजा समाज-विद्वेषियों को उचित दण्ड आदि के द्वारा निस्तेज कर दे, जिससे वे समाज को हानि न पहुँचा सकें। समाज में ज्ञानी ब्राह्मण भी अग्नि हैं। ये अपनी वाणी द्वारा ज्ञान को इस रूप में प्रसारित करें कि समाज-द्वेषी उससे प्रभावित होकर अपनी द्वेष आदि वृत्तियों के लिए ग्लानि का अनुभव करें।
भावार्थ -
राजा व प्रचारक के दण्ड व बक्तृत्व के तेज के सामने द्वेष करनेवाले पुरुष निस्तेज होकर द्वेष को छोड़नेवाले हों।
विशेष -
सम्पूर्ण सूक्त का भाव यही है कि अग्नि अपने 'तपस्,हरस्, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस' के द्वारा द्वेष करनेवाले पुरुषों को इस द्वेष की वृत्ति से पृथक कर दे। अगले सूक्तों में अग्नि का स्थान 'वायु, सूर्य, चन्द्र व आपः' लेते हैं। अवशिष्ट मन्त्रभाग में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। 'वायु' [वा गतिगन्धनयोः] गति के द्वारा सब प्रकार की बुराइयों का हिंसन करनेवाला है। 'सूर्य' [स गती, पू प्रेरणे] निरन्तर गतिवाला होता हुआ सबको कर्मों के लिए प्रेरित करता है और मानो यही कहता है कि गति ही तुम्हें चमकाएगी। चन्द्र' [चदि आहादे] आहादमय मनोवृति का संकेत करता है। आप:' [आप् व्यासी] व्यापकता का बोध करा रहा है। ये वायु आदि से सूचित भाव द्वेषभावना को नष्ट करनेवाले हैं। यदि एक मनुष्य 'वायु, सूर्य, चन्द्र व आप:' बनने का प्रयत्न करता है तो वह द्वेषादि के दुर्भावों में पड़ ही नहीं सकता। मुख्यरूप से ये सब शब्द प्रभु के वाचक हैं। वे प्रभु ही 'अग्नि' हैं [तदेवाग्निः]। वे ही 'वायु' हैं [तद् वायुः]। वे ही 'सूर्य' है [तदादित्यः]। वे ही 'चन्द्रमा' हैं [तदु चन्द्रमा:]। प्रभु को ही 'आप:' कहते हैं [ता आपः]। ये प्रभु अपनी 'तपस्, हरस्, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस्' के द्वारा द्वेषियों के द्वेष दूर करें। सूक्त इसप्रकार हैं -