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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अग्ने॒ यत्ते॑ शो॒चिस्तेन॒ तं प्रति॑ शोच॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । यत् । ते॒ । शो॒चि: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । शो॒च॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥१९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने यत्ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । यत् । ते । शोचि: । तेन । तम् । प्रति । शोच । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥१९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (अग्रे) = ज्ञानदीप्त प्रभो ! (यत्) = जो (ते) = आपकी (शोचि:) = ज्ञान-ज्वाला की दीप्ति है, (तेन) = उससे (तं प्रति शोच) = उसके जीवन में दीति कीजिए (यः) = जो (अस्मान्) = हम सबके (प्रति द्वेष्टि) = द्वेष करता है और परिणामतः वयम्-हम भी यम्-जिससे द्विष्मः-प्रीति नहीं कर पाते। २. इन द्वेष स्वभाववाले व्यक्तियों के हदय में ज्ञान-ज्वाला से दीति उत्पन्न करके इनके द्वेषभाव को समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। अज्ञान द्वेष का कारण बनता है। ज्ञान की दीप्ति होते ही द्वेष की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है। मूर्ख ही द्वेष कर सकता है, ज्ञानी नहीं।

    भावार्थ -

    ज्ञान की दीसि के द्वारा हम हदयों को शुद्ध करके द्वेष-भावना का विनाश करें।

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