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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
    सूक्त - सविता देवता - पशुसमूहः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त

    ए॒ह य॑न्तु प॒शवो॒ ये प॑रे॒युर्वा॒युर्येषां॑ सहचा॒रं जु॒जोष॑। त्वष्टा॒ येषां॑ रूपधेयानि॒ वेदा॒स्मिन्तान्गो॒ष्ठे स॑वि॒ता नि य॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒ह । य॒न्तु॒ । प॒शव॑: । ये । प॒रा॒ऽई॒यु: । वा॒यु: । येषा॑म् । स॒ह॒ऽचा॒रम् । जु॒जोष॑ । त्वष्टा॑ । येषा॑म् । रू॒प॒ऽधेया॑नि । वेद॑ । अ॒स्मिन् । तान् । गो॒ऽस्थे । स॒वि॒ता । नि । य॒च्छ॒तु॒ ॥२६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्येषां सहचारं जुजोष। त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन्तान्गोष्ठे सविता नि यच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इह । यन्तु । पशव: । ये । पराऽईयु: । वायु: । येषाम् । सहऽचारम् । जुजोष । त्वष्टा । येषाम् । रूपऽधेयानि । वेद । अस्मिन् । तान् । गोऽस्थे । सविता । नि । यच्छतु ॥२६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इह) = यहाँ-हमारे घरों में (पशवः) = पशु (आयन्तु) = लौटकर आनेवाले हों, (ये) = जो (परेयुः) = चरने के लिए दूर निकल गये हैं, (येषाम्) = जिन पशुओं के (सहचारम्) = सहचरण को (वायुः जुजोष) = वायु ने सेवन किया, अर्थात् जो पशु खूब खुली वायु में घूमनेवाले बने, वे दिनभर वायुसेवन के पश्चात् अब घरों में लौटें। २. (त्वष्टा) = [इन्द्रो वै त्वष्टा-ऐ०६.१०] दीसिमान् सूर्य (येषाम्) = जिनके (रूपधेयानि वेद) = रूपों में धारण को जानता है, अर्थात् जिनमें उत्तम रूप स्थापित है। ये गौ आदि पशु जितना सूर्य-किरणों के सम्पर्क में समय बिता पाएंगे, उतना ही सुरूप होते हुए उत्तम दूधवाले भी होंगे। (तान्) = उन पशुओं को (सविता) = दूध का अभिषव व दोहन करनेवाला व्यक्ति (अस्मिन् गोष्ठे) = इस गोष्ठ स्थान में (नियच्छतु) = बाँधकर रक्खे।

    भावार्थ -

    प्रात: दुग्धदोहने के बाद गौएँ चरने के लिए चारागाहों में जाएँ। इस समय वायु व सूर्य के सम्पर्क में रहती हुई वे स्वस्थ होंगी व पौष्टिक दूध देनेवाली होंगी।

     

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