अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
सूक्त - सविता
देवता - पशुसमूहः
छन्दः - भुरिगअनुष्टुप्
सूक्तम् - पशुसंवर्धन सूक्त
सं सि॑ञ्चामि॒ गवां॑ क्षी॒रं समाज्ये॑न॒ बलं॒ रस॑म्। संसि॑क्ता अ॒स्माकं॑ वी॒रा ध्रु॒वा गावो॒ मयि॒ गोप॑तौ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । सि॒ञ्चा॒मि॒ । गवा॑म् । क्षी॒रम् । सम् । आज्ये॑न । बल॑म् । रस॑म् । सम्ऽसि॑क्ता: । अ॒स्माक॑म् । वी॒रा: । ध्रु॒वा: । गाव॑: । मयि॑ । गोऽप॑तौ ॥२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सं सिञ्चामि गवां क्षीरं समाज्येन बलं रसम्। संसिक्ता अस्माकं वीरा ध्रुवा गावो मयि गोपतौ ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । सिञ्चामि । गवाम् । क्षीरम् । सम् । आज्येन । बलम् । रसम् । सम्ऽसिक्ता: । अस्माकम् । वीरा: । ध्रुवा: । गाव: । मयि । गोऽपतौ ॥२६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
विषय - घर पर गौ का ध्रुव निवास
पदार्थ -
१. मैं (गवां क्षीरम्) = गौओं के दूध को (संसिचामि) = सम्यक् सिक्त करता हूँ-रजकर गोदुग्ध का सेवन करता हैं। (आज्येन) = घृत के द्वारा (बलम) = शरीर में बल को तथा (रसम) = वाणी में रस को (सम्) = सम्यक् सिक्त करता हूँ। गोदुग्ध के यथेष्ट पान से शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं। गोघृत शरीर को बलवान् और वाणी को रसीला बनानेवाला है। २. (अस्माकं वीरा:) = हमारे सन्तान भी (संसिक्ताः) = गोदुग्ध व घृत से सम्यक् सिक्त होते हैं, इसलिए (मयि गोपतौ) = मुझ गोरक्षक में (गावः) = गौएँ (ध्रुवा:) = ध्रुवता से रहती हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि में गौ न रक्खें। मेरा घर सदा गौवाला घर बना रहता है। घर में गौ होने पर सब गोदुग्ध का यथेष्ट प्रयोग कर पाते हैं।
भावार्थ -
घर पर गौ को नियम से रखना ही चाहिए, ताकि सब यथेष्ट दूध पी सकें।
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