अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
सूक्त - पतिवेदनः
देवता - ओषधिः
छन्दः - निचृत्पुरउष्णिक्
सूक्तम् - पतिवेदन सूक्त
आ ते॑ नयतु सवि॒ता न॑यतु॒ पति॒र्यः प्र॑तिका॒म्यः॑। त्वम॑स्यै धेहि ओषधे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । न॒य॒तु॒ । स॒वि॒ता । न॒य॒तु॒ । पति॑: । य: । प्र॒ति॒ऽका॒म्य᳡: । त्वम् । अ॒स्यै॒ । धे॒हि॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥३६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते नयतु सविता नयतु पतिर्यः प्रतिकाम्यः। त्वमस्यै धेहि ओषधे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । नयतु । सविता । नयतु । पति: । य: । प्रतिऽकाम्य: । त्वम् । अस्यै । धेहि । ओषधे ॥३६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
विषय - आशीर्वाद
पदार्थ -
१. जब कन्या घर से विदा होती है तब पुरोहित उसे आशीर्वाद देते हुए कहता है कि यह (सविता) = ऐश्वर्य को उत्पन्न करनेवाला (यः) = जो (प्रतिकाम्य:) = प्रत्येक दृष्टि से कमनीय व सुन्दर जीवनवाला ते (पति:) = तेरा यह पति (नयतु) = तुझे यहाँ से ले-जानेवाला हो और (नयतु) = ले-जानेवाला ही हो। यह कभी तेरे प्रति असन्तुष्ट होकर तुझे वापस (पित्गृह) = में भेजने की कामनावाला न हो। २. हे (ओषधे) = दोषदहन की शक्ति को धारण करनेवाले युवक! (त्वम्) = तू भी (अस्यै) = इस कन्या के लिए (धेहि) = धारण करनेवाला बन। कन्या को तो अपना व्यवहार इतना मधुर व सुन्दर बनाना ही चाहिए कि वरपक्षवालों को उससे किसी प्रकार की शिकायत न हो। पति को भी चाहिए कि वह पत्नी की सब अवश्यकताओं को उचित रूप से पूर्ण करनेवाला हो।
भावार्थ -
पति पत्नी को जब ले-जाए तो ले-ही जाए, असन्तुष्ट होकर उसे पितगृह में वापस भेजनेवाला न बने, उसका धारण करनेवाला हो।
विशेष -
इस सम्पूर्ण सूक्त में पति-पत्नी के धर्मों का अत्यन्त सुन्दरता से चित्रण हुआ है। इस काण्ड का प्रारम्भ प्रभु अराधना से हुआ था। प्रभु का आराधन करनेवाले पति-पत्नी ही घर को सुन्दर बना पाते हैं, अत: काण्ड की समाप्ति पर इस स्वर्गतुल्य गृह के निर्माण का उपदेश हुआ है। इन घरों के रक्षण का उत्तरदायित्व राजा पर है। यह 'अथर्वा' न डाँवाडोल वृत्तिवाला स्थिरवृत्तिवाला राजा शत्रुओं के आक्रमण से प्रजाओं का रक्षण करता है। इस भाव के प्रतिपादन
के साथ तृतीय काण्ड आरम्भ होता है।