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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    श॒णश्च॑ मा जङ्गि॒डश्च॒ विष्क॑न्धाद॒भि र॑क्षताम्। अर॑ण्याद॒न्य आभृ॑तः कृ॒ष्या अ॒न्यो रसे॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒ण: । च॒ । मा॒ । ज॒ङ्गि॒ड: । च॒ । विस्क॑न्धात् । अ॒भि । र॒क्ष॒ता॒म् । अर॑ण्यात् । अ॒न्य:। आऽभृ॑त: । कृ॒ष्या: । अ॒न्य: । रसे॑भ्य: ॥४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शणश्च मा जङ्गिडश्च विष्कन्धादभि रक्षताम्। अरण्यादन्य आभृतः कृष्या अन्यो रसेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शण: । च । मा । जङ्गिड: । च । विस्कन्धात् । अभि । रक्षताम् । अरण्यात् । अन्य:। आऽभृत: । कृष्या: । अन्य: । रसेभ्य: ॥४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. जङ्गिडमणि का भाव हम विस्तार से देख चुके हैं। यहाँ उसके साथ 'शण' का भी समावेश हो गया है। मन्त्र में प्रार्थना है कि (शण: च जङ्गिडः च) = शण और जङ्गिड ये दोनों मिलकर (मा) = मुझे (विष्कन्धात्) = अङ्गों से सुगठित होने के अभावरूप रोग से (अभिरक्षताम्) = रक्षित करें। इनके द्वारा मेरे अङ्ग सुगठित बने रहें। २. (अन्य:) = इनमें से एक 'शण' (अरण्यात् आभूत:) = अरण्य से अपने अन्दर धारण किया जाता है और अन्य: दूसरा 'जङ्गिड' मणि (कृष्याः) = खेती से उत्पन्न अन्नादि के (रसेभ्यः) = रसों से शरीर में पुष्ट होता है। शरीर में पुष्ट होनेवाला जङ्गिडमणि है और 'शण' मन में धारण किया जाता है। यह शण-त्यागभाव है [शण=to give] जिसका पोषण 'अरण्य' से होता है। अरण्य का भाव यहाँ एकान्त प्रदेश है। एकान्त में बैठकर संसार के स्वरूप का चिन्तन करने पर मनुष्य में अवश्य ही यह त्यागवृत्ति उत्पन्न होती है। यह त्यागवृत्ति मन को उसी प्रकार स्वस्थ बनाती है जैसेकि वीर्यशक्ति शरीर को। एवं, शण व जङ्गिड एक-दूसरे के सहायक होते हैं। शरीररक्षण के लिए मानस स्वास्थ्य भी अत्यन्त आवश्यक है।

    भावार्थ -

    त्यागवृत्ति व वीर्यरक्षण हमें सब विघटनों से बचाएँ।

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