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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    दी॑र्घायु॒त्वाय॑ बृहते रणा॒यारि॑ष्यन्तो॒ दक्ष॑माणाः॒ सदै॒व। म॒णिं वि॑ष्कन्ध॒दूष॑णं जङ्गि॒डं बि॑भृमो व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । बृ॒ह॒ते । रणा॑य । अरि॑ष्यन्त: । दक्ष॑माणा: । सदा॑ । ए॒व । म॒णिम् । वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् । ज॒ङ्गि॒डम् । बि॒भृ॒म॒: । व॒यम् ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दीर्घायुत्वाय बृहते रणायारिष्यन्तो दक्षमाणाः सदैव। मणिं विष्कन्धदूषणं जङ्गिडं बिभृमो वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दीर्घायुऽत्वाय । बृहते । रणाय । अरिष्यन्त: । दक्षमाणा: । सदा । एव । मणिम् । विस्कन्धऽदूषणम् । जङ्गिडम् । बिभृम: । वयम् ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (वयम्) = हम (विष्कन्धदूषणम्) = शोषण को दूषित करनेवाली [स्कन्द् शोषणे] (जङ्गिड मणिम्) = शरीरस्थ वीर्यशक्ति को (बिभम:) धारण करते हैं। (सदैव) = सदा ही (दक्षमाणाः) = वृद्धि करने की कामना करते हुए हम इस शक्ति को धारण करते हैं [हेतौ शानच्] (अरिष्यन्त:) = हिंसित न होते हुए हम इस शक्ति को धारण करते हैं। इस शक्ति के धारण से हमारी रोगादि से किसी प्रकार की हिंसा नहीं होगी और हम सभी दृष्टिकोणों से वृद्धि प्रास करेंगे। २. हम इस शक्ति का धारण (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घजीवन के लिए करते हैं। ('मरणं बिन्दुपातेन जीवन बिन्दुधारणात्') इसके नाश से मृत्यु और इसके धारण से जीवन है। (बृहते रणाय) = बड़ी रमणीयता के लिए अथवा शब्दशक्ति के लिए हम इसका धारण करते हैं। इस वीर्यशक्ति के रक्षण से शरीर के स्वास्थ्य के कारण रमणीयता प्राप्त होती है और वाणी में शक्ति बनी रहती है। इसके रक्षण के अभाव में वाणी की शक्ति में भी न्यूनता आ जाती है।

    भावार्थ -

    हम वीर्य को शरीर में ही बाँधते हैं जिससे [क] दीर्घायुष्य प्राप्त हो, [ख] शरीर में स्वास्थ्य की रमणीयता बनी रहे और शब्दशक्ति में निर्बलता न आये, [ग] हम रोगों से हिंसित न हों, [घ] हमारी शक्तियों का वर्धन हो, [ङ] शोषण से हम पीड़ित न हों।

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