अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः
छन्दः - त्रिपात्स्वराडुपरिष्टान्महाबृहती
सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
शं नो॑ भवन्त्वा॒प ओष॑धयः शि॒वाः। इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॒ अप॑ हन्तु र॒क्षस॑ आ॒राद्विसृ॑ष्टा॒ इष॑वः पतन्तु र॒क्षसा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठशम् । न॒: । भ॒व॒न्तु॒ । आ॒प: । ओष॑धय: । शि॒वा: । इन्द्र॑स्य । वज्र॑: । अप॑ । ह॒न्तु॒ । र॒क्षस॑: । आ॒रात् । विऽसृ॑ष्टा: । इष॑व: । प॒त॒न्तु॒ । र॒क्षसा॑म् ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नो भवन्त्वाप ओषधयः शिवाः। इन्द्रस्य वज्रो अप हन्तु रक्षस आराद्विसृष्टा इषवः पतन्तु रक्षसाम् ॥
स्वर रहित पद पाठशम् । न: । भवन्तु । आप: । ओषधय: । शिवा: । इन्द्रस्य । वज्र: । अप । हन्तु । रक्षस: । आरात् । विऽसृष्टा: । इषव: । पतन्तु । रक्षसाम् ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
विषय - जल व ओषधियाँ कल्याणकर हों
पदार्थ -
१.(न:) = हमारे लिए (अपः) = जल (शं भवन्तु) = शान्ति देनेवाले हों। (ओषधयः शिवा:) = औषधियाँ कल्याणकर हों। शरीर में जब किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाए तो जल व ओषधियों का समुचित प्रयोग हमारे लिए शान्ति व कल्याणकारक हो। २. परन्तु इससे भी अच्छा तो यह है कि (इन्द्रस्य) = इन्द्र का (वन:) = बन (रक्षस:) = राक्षसों को (अपहन्तु) = हमसे सुदूर विनष्ट करे। 'इन्द्र' शब्द जितेन्द्रिय पुरुष का वाचक है और वज्र' का भाव क्रियाशीलता से है। जितेन्द्रिय पुरुष की क्रियाशीलता राक्षसों को-रोगकमियों को पनपने ही नहीं देती। रोगकृमि राक्षस हैं-अपने रमण के लिए हमारा क्षय करनेवाले हैं। इन (रक्षसाम्) = रोगकृमियों के (विसृष्टाः इषवः) = छोड़े हुए अब हिताय काण्डम् बाण (आरात् पतन्तु) = हमसे दूर ही गिरें। इन रोगकृमियों के कारण उत्पन्न होनेवाले विविध विकार ही इनसे छोड़े गये इषु हैं। ये इषु हमसे दूर ही रहें। इन रोगकृमियों के कारण हममें विकार उत्पन्न न हों। इसके लिए आवश्यक है कि जलों व ओषधियों का प्रयोग ठीक हो।
भावार्थ -
जलों व ओषधियों का प्रयोग हमारे लिए शान्ति व कल्याण देनेवाला हो। हम क्रियाशील बने रहें, जिससे विकार उत्पन्न ही न हों।
विशेष -
इस सूक्त में मुख्यरूप से पर्वत से बहनेवाले जल के उत्तम औषध होने का उल्लेख है [१]। इस जल से उत्पन्न औषध फोड़े को पकाकर उसके मल के आस्त्राव से रोग को शान्त करनेवाली है। जलों व औषधों का ठीक प्रयोग कल्याणकर है, परन्तु क्रियाशीलता सर्वाधिक कल्याण करनेवाली है [६]। अगले सूक्त का ऋषि अथवा'-डांवाडोल न होनेवाला है। यह जङ्गिडमणि के धारण से दीर्घायुत्व को प्राप्त करता है। जमति-जो हमें खा जानेवाला रोग है, उसे 'गिरति' यह निगल लेता है, इससे इसे 'जङ्गिड़' कहा है। शरीर में सर्वोत्तम धातु होने से इसे मणि का नाम दिया गया है, अत: यह 'जङ्गिड़मणि' वीर्य ही है। इसे 'अथर्वा' धारण करता है।