अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
अ॒दो यद॑व॒धाव॑त्यव॒त्कमधि॒ पर्व॑तात्। तत्ते॑ कृणोमि भेष॒जं सुभे॑षजं॒ यथास॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द: । यत् । अ॒व॒ऽधाव॑ति । अ॒व॒त्ऽकम् । अधि॑ । पर्व॑तात् । तत् । ते॒ । कृ॒णो॒मि॒ । भे॒ष॒जम् । सुऽभे॑षजम् । यथा॑ । अस॑सि ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अदो यदवधावत्यवत्कमधि पर्वतात्। तत्ते कृणोमि भेषजं सुभेषजं यथाससि ॥
स्वर रहित पद पाठअद: । यत् । अवऽधावति । अवत्ऽकम् । अधि । पर्वतात् । तत् । ते । कृणोमि । भेषजम् । सुऽभेषजम् । यथा । अससि ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
विषय - पर्वतीय जल
पदार्थ -
१. (अदः) = वह (यत्) = जो (अवस्कम्) = रक्षा करनेवाला जल (अधिपर्वतात्) = पर्वत पर से (अवधावति) = नीचे की ओर दौड़ता है, (तत) = उसे (ते) = तेरे लिए (भेषजम) = औषध (कृणोमि) = करता हैं, (यथा) = जिससे (सुभेषजम्) = उत्तम औषधवाला (अससि) = तू हो। २. पर्वतों से बहनेवाला जल भिन्न-भिन्न प्रकार के खनिजद्रव्यों के सम्पर्क में आता हुआ सचमुच कई रोगों का औषध बन जाता है। इन जलों में वे खनिजद्रव्य सूक्ष्मरूप से समवेत होकर जलों के दोष-निवारक गुणों को बढ़ा देते हैं। जल भेषज हैं, तो उन द्रव्यों के सम्पर्क से वे सुभेषज हो जाते हैं।
भावार्थ -
पर्वतों से बहकर नीचे आनेवाला जल भेषज है, भेषज ही नहीं सुभेषज है।
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