अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
अ॑रु॒स्राण॑मि॒दं म॒हत्पृ॑थि॒व्या अध्युद्भृ॑तम्। तदा॑स्रा॒वस्य॑ भेष॒जं तदु॒ रोग॑मनीनशत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒रु॒:ऽस्राण॑म् । इ॒दम् । म॒हत् । पृ॒थि॒व्या: । अधि॑ । उत्ऽभृ॑तम् । तत् । आ॒ऽस्रा॒वस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अरुस्राणमिदं महत्पृथिव्या अध्युद्भृतम्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत् ॥
स्वर रहित पद पाठअरु:ऽस्राणम् । इदम् । महत् । पृथिव्या: । अधि । उत्ऽभृतम् । तत् । आऽस्रावस्य । भेषजम् । तत् । ऊं इति । रोगम् । अनीनशत् ॥३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
विषय - 'पृथिवी से उद्धृत यह ओषधि'
पदार्थ -
१. (इदम्) = यह (महत्) = महनीय-महत्त्वपूर्ण (अरुस्त्राणम् ) = फोड़े को पकाकर मल को पृथक करनेवाली औषध है। (पृथिव्या:) = पृथिवी से यह खोदकर निकाली गई है। (तत्) = वह औषध (आस्त्रावस्य) = मल को क्षरित करने की भेषजम् औषध है, (उतत्) = और यह (रोगम् अनीनशत्) = रोग को नष्ट करती है। २. पृथिवी को खोदकर निकाली गई यह 'अरुस्राण' औषध आखाव के द्वारा रोग को शान्त कर देती है। यही उसका महत्त्व है। 'पृथिवी से खोदकर निकाली गई' ये शब्द इस भाव को सुव्यक्त करते हैं कि यह जितना अधिक भूगर्भ में स्थित होती है, उतनी ही अधिक गुणकारी होती है।
भावार्थ -
पर्वतमूल की पृथिवी से खोदकर निकाली गई 'अरुलाण' औषध फोड़े को पकाकर मल के आस्त्राव के द्वारा रोग को शान्त करनेवाली है।
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