अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त
उ॑प॒जीका॒ उद्भ॑रन्ति समु॒द्रादधि॑ भेष॒जम्। तदा॑स्रा॒वस्य॑ भेष॒जं तदु॒ रोग॑मशीशमत् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽजीका॑: । उत् । भ॒र॒न्ति॒ । स॒मु॒द्रात् । अधि॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । आ॒ऽस्रा॒वस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । रोग॑म् । अ॒शी॒श॒म॒त् ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उपजीका उद्भरन्ति समुद्रादधि भेषजम्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमशीशमत् ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽजीका: । उत् । भरन्ति । समुद्रात् । अधि । भेषजम् । तत् । आऽस्रावस्य । भेषजम् । तत् । ऊं इति । रोगम् । अशीशमत् ॥३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
विषय - समुद्र की जलनीली [Mass]
पदार्थ -
१. "उपजीक' शब्द जलाधिष्ठातृदेवता [Water deity] के लिए प्रयुक्त होता है। जलों में कार्य करके आजीविका चलानेवाले व्यक्ति भी उपजीक है। ये (उपजीका:) = जल में कार्य करके जीनेवाले लोग (समुद्राद् अधि) = समुद्र में से (भेषजम्) = औषध को (उद्भरन्ति) = ऊपर लाते हैं। समुद्र में होनेवाली यह 'जलनीली' [काई] ही वह औषध है। २. (तत्) = वह जलनीली (आस्त्रावस्य आस्ताव) = की (भेषजम्) उत्तम औषध है (उ) = और (तत्) = वह (रोगम्) = रोग को (अशीशमत्) = शान्त कर देती है।
भावार्थ -
समुद्र में उत्पन्न होनेवाली काई कृमिनाशक होने से आस्त्राव की उत्तम औषध है।
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