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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमा अथवा जङ्गिडः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    अ॒यं विष्क॑न्धं सहते॒ ऽयं बा॑ध॒ते अ॒त्त्रिणः॑। अ॒यं नो॑ वि॒श्वभे॑षजो जङ्गि॒डः पा॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । विऽस्क॑न्धम् । स॒ह॒ते॒ । अ॒यम् । बा॒ध॒ते॒ । अ॒त्त्रिण॑: । अ॒यम् । न॒: । वि॒श्वऽभे॑षज: । ज॒ङ्गि॒ड: । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं विष्कन्धं सहते ऽयं बाधते अत्त्रिणः। अयं नो विश्वभेषजो जङ्गिडः पात्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । विऽस्कन्धम् । सहते । अयम् । बाधते । अत्त्रिण: । अयम् । न: । विश्वऽभेषज: । जङ्गिड: । पातु । अंहस: ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (अयम्) = यह वीर्यरूप मणि (विष्कन्धम्) = अङ्गों के गठन के टूटने को (सहते) = अधिभूत करती है, अङ्गों को सुगठित बनाती है। (अयम्) = यह (अत्रिण:) = शरीर-भक्षक कृमियों को (बाधते) = पीडित करके दूर करती है। वीर्यरक्षण से शरीर में रोगकृमि प्रबल नहीं हो पाते। २. (अयं जङ्गिड:) = शरीर-भक्षक रोगकृमियों को नष्ट करनेवाली यह जङ्गिडमणि [वीर्यशक्ति] (विश्वभेषजः) = सब रोगों की औषध है। यह हमें (अहंस: पातु) = पापों से बचाये। वीर्यरक्षण से शरीर के ही दोष दूर नहीं होते, यह मानस दुर्भावनाओं को भी दूर करके हमें पापों से बचाता है। यह वीर्यरक्षण शरीर व मन दोनों को ही नीरोग बनाता है।

    भावार्थ -

    यह वीर्य 'विश्वभेषज' मणि है।

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