अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
वृ॑षा॒यमा॑णो अवृणीत॒ सोमं॒ त्रिक॑द्रुकेषु अपिबत्सु॒तस्य॑। आ साय॑कं म॒घवा॑दत्त॒ वज्र॒मह॑न्नेनं प्रथम॒जामही॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ष॒ऽयमा॑न: । अ॒वृ॒णी॒त॒ । सोम॑म् । त्रिऽक॑द्रुकेषु । अ॒पि॒ब॒त् । सु॒तस्य॑ । आ । साय॑कम् । म॒घऽवा॑ । अ॒द॒त्त॒ । वज्र॑म् । अह॑न् । ए॒न॒म् । प्र॒थ॒म॒ऽजाम् । अही॑नाम् ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेषु अपिबत्सुतस्य। आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषऽयमान: । अवृणीत । सोमम् । त्रिऽकद्रुकेषु । अपिबत् । सुतस्य । आ । सायकम् । मघऽवा । अदत्त । वज्रम् । अहन् । एनम् । प्रथमऽजाम् । अहीनाम् ॥५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
विषय - सायक 'वज्र'
पदार्थ -
१. (वृषायमाणः) = शक्तिशाली की भाँति आचरण करता हुआ इन्द्र (सोम अवृणीत) = सोम का वरण करता है। शरीर में सोम के रक्षण से ही वह शक्तिशाली बनता है। शक्तिशाली बनने के लिए यह (सुतस्य) = शरीर में उत्पन्न हुए सोम का (त्रीकद्रूकेषु) = [कदि आह्राने] तीनों आहान कालों में तीनों प्रार्थना-समयों में अथवा जीवन-यज्ञ के तीन सवनों में (अपिबत्) = पान करता है। प्रथम चौबीस वर्षों के प्रात:सवन में, अगले चवालीस वर्षों के माध्यन्दिन सवन में, अन्तिम अड़तालीस वर्षों के सायन्तनसवन में यह इस सोम-पान का ध्यान रखता है। वीर्य का रक्षण ही इसका सोमपान है। सामान्य भाषा में यह बाल्य, यौवन और वार्धक्य-इन तीन कालों में वीर्यरक्षण का ध्यान करता है। २. (मघवा) = सोम-रक्षण से शक्तिशाली बना हुआ ज्ञानेश्वर्यशाली यह इन्द्र (सायकम्) = कामादि शत्रुओं का अन्त करनेवाले (वनम्) = क्रियाशीलतारूप वज़ को (आ अदत्त) = हाथ में ग्रहण करता है और (एनम्) = इस (अहीनाम्) = नाशक वासनाओं के (प्रथमजाम) = प्रथम स्थान में होनेवाली इस कामवासना को (अहन्) = नष्ट कर डालता है। कामवासना ही सर्वमुख्य शत्रु है। क्रियाशीलता से इसका विनाश होता है। क्रिया में लगा हुआ पुरुष इसका शिकार नहीं होता। यही इन्द्र के द्वारा वृत्र का विनाश है।
भावार्थ -
सोमरक्षण से ही शक्ति प्राप्त होती है। हमें जीवन-यज्ञ के तीनों सवनों में इस सोम का पान [रक्षण] करना है। इसके लिए आवश्यक है कि सदा क्रिया में लगे रहकर हम वासना को नष्ट कर डालें।
विशेष -
सम्पूर्ण सूक्त में सोम के रक्षण के उपायों तथा लाभों का प्रतिपादन हुआ है। इस सोम का रक्षण करनेवाला ही राष्ट्र का अधिपति बनकर राष्ट्र का सब प्रकार से रक्षण करता है। यह गतिशील होने से 'शौनक' कहलाता है।