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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुराथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त

    इन्द्र॑ जु॒षस्व॒ प्र व॒हा या॑हि शूर॒ हरि॑भ्याम्। पिबा॑ सु॒तस्य॑ म॒तेरि॒ह म॒धोश्च॑का॒नश्चारु॒र्मदा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । जु॒षस्व॑ । प्र । व॒ह॒ । आ । या॒हि॒ । शू॒र॒ । हरि॑ऽभ्याम् । पिब॑ । सु॒तस्य॑ । म॒ते: । इ॒ह । मधो॑: । च॒का॒न: । चारु॑: । मदा॑य ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्। पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । जुषस्व । प्र । वह । आ । याहि । शूर । हरिऽभ्याम् । पिब । सुतस्य । मते: । इह । मधो: । चकान: । चारु: । मदाय ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष! [क] (जुषस्व) = तू प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन कर और [ख] (प्रवह) = अपने कर्तव्यभार का वहन कर [ग] (शूरः) = कामादि शत्रुओं का हिंसन करनेवाला तू (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के साथ (याहि) = मार्ग पर आगे बढ़। २. इन उपायों से तू (इह) = इस शरीर में (सतुस्य) = उत्पन्न किये गये सोम का, जो सुरक्षित होने पर (मते:) = बुद्धि का वर्धन करनेवाला है और (मधो:) = स्वभाव को मधुर बनानेवाला है, (पिब) = पान कर इसे शरीर में ही सुरक्षित कर। सोमपान के द्वारा तू (चकानः) = ज्ञान से दीत बनता है और (चारु:) = सशक्तता से यज्ञादि कर्मों में चरणशील बनता है तथा तेरा जीवन मद व हर्ष के लिए होता है। (चकान:) = [कम् 10 wish] इसकी रक्षा की तू कामनावाला बन, (चारु:) = इसका अपने अन्दर ही चरण [भक्षण] करनेवाला हो, (मदाय) = शरीर में सुरक्षित हुआ यह सोम तेरे हर्ष के लिए होगा।

    भावार्थ -

    सोमरक्षण के तीन साधन हैं-[क] प्रभु की उपासना, [ख] कर्तव्यभार-वहन, [ग] कर्मों में लगे रहना। सुरक्षित हुए सोम के तीन लाभ हैं-[क] बुद्धि-वर्धन, [ख] स्वभाव-माधुर्य, [ग] उल्लास।

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