अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुराथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
अह॒न्नहिं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णं त्वष्टा॑स्मै॒ वज्रं॑ स्व॒र्यं॑ ततक्ष। वा॒श्रा इ॑व धे॒नवः॒ स्यन्द॑माना॒ अञ्जः॑ समु॒द्रमव॑ जग्मु॒रापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअह॑न् । अहि॑म् । पर्व॑ते । शि॒श्रि॒या॒णम् । त्वष्टा॑ । अ॒स्मै॒ । वज्र॑म् । स्व॒र्य᳡म् । त॒त॒क्ष॒ । वा॒श्रा:ऽइ॑व । धे॒नव॑: । स्यन्द॑माना: । अञ्ज॑: । स॒मु॒द्रम् । अव॑ । ज॒ग्मु॒: । आप॑: ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष। वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥
स्वर रहित पद पाठअहन् । अहिम् । पर्वते । शिश्रियाणम् । त्वष्टा । अस्मै । वज्रम् । स्वर्यम् । ततक्ष । वाश्रा:ऽइव । धेनव: । स्यन्दमाना: । अञ्ज: । समुद्रम् । अव । जग्मु: । आप: ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
विषय - समुद्र-गमन
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित इन्द्र (पर्वते शिश्रियाणम्) = अविद्या-पर्वत में निवास करनेवाली (अहिम्) = समन्तात् विनाश करनेवाली वासना को (अहन्) = नष्ट करता है। (त्वष्टा) = ज्ञानदीस प्रभु (अस्मै) = इस इन्द्र के लिए (स्वर्यम्) = उत्तम प्रकाशवाली (वनम्) = क्रियाशीलता को (ततक्ष) = बनाता है, अर्थात् यह इन्द्र गतिशील होता है और इसकी गतिशीलता प्रकाशमय होती है-इसके सब कर्म ज्ञानपूर्वक होते हैं। इन कर्मों में सतत लगे रहने से ही यह वासना को विनष्ट कर पाता है। २. इस वासना के विनष्ट होने पर (धेनवः) = ज्ञान-दुग्ध देनेवाली वेदवाणीरूप (गौएँ वाश्राः इव) = शब्द करती हुई-कर्तव्य का ज्ञान देती हुई (स्यन्दमाना:) = इसकी ओर गतिवाली होती हैं। इन वेदवाणियों से कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करके (आप:) = ये क्रियाशील प्रजाएँ (अज:) = साक्षात् (समुद्रम्) = [स-मुद] आनन्दमय प्रभु की और (अवजग्मुः) = गतिशील होती हैं, अर्थात् ये प्रजाएँ प्रभु को प्राप्त होती हैं।
भावार्थ -
इन्द्र अविद्यामूलक वासना को नष्ट करता है। प्रभु इसे प्रकाशमय क्रियाशीलता प्राप्त कराते हैं। इसे वेदवाणी प्राप्त होती है। उसके अनुसार कर्म करता हुआ यह इन्द्र आनन्दमय प्रभु को प्राप्त करता है।
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