अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शापमोचन सूक्त
परि॒ मां परि॑ मे प्र॒जां परि॑ णः पाहि॒ यद्धन॑म्। अरा॑तिर्नो॒ मा ता॑री॒न्मा न॑स्तारि॒शुर॒भिमा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । माम् । परि॑ । मे॒ । प्र॒ऽजाम् । परि॑ । न॒: । पा॒हि॒ । यत् । धन॑म् । अरा॑ति । न॒: । मा । ता॒री॒त् । मा । न॒: । ता॒रि॒षु: । अ॒भिऽमा॑तय: ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
परि मां परि मे प्रजां परि णः पाहि यद्धनम्। अरातिर्नो मा तारीन्मा नस्तारिशुरभिमातयः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । माम् । परि । मे । प्रऽजाम् । परि । न: । पाहि । यत् । धनम् । अराति । न: । मा । तारीत् । मा । न: । तारिषु: । अभिऽमातय: ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
विषय - आरति व अभिमाति से ऊपर
पदार्थ -
१. यज्ञीय वीरुत् का प्रयोग करनेवाले (माम्) = मुझे (परि) = (पाहि) रक्षित कीजिए। (मे प्रजाम्) = मेरी प्रजा को (परि) = (पाहि) रक्षित कीजिए। (नः यत् धनम्) = हमारा जो ज्ञान और शान्तिरूप धन है ,उसे (परि पाहि) = सर्वथा रक्षित कीजिए | २ . ज्ञान व शांति के अपनानेवाले (नः) = हम लोगों को (अरातिः) = शत्रु (मा तरित्) = पराभूत न करे तथा (अभिमतयः) = अभिमान की वृत्तियाँ (नः) = हमें (मा तरिषु:) = अभिभूत करनेवाली न हों | हम अराति व अभिमाति से ऊपर उठकर चलें | (अरातिः) = न देने की वृत्ति - कृपणता और अभिमान हमें वशीभूत न कर लें |
भावार्थ -
हम सात्त्विक आहार से शुद्ध - सत्त्व बनकर अ - दान व अभिमान से ऊपर उठें
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