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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शापमोचन सूक्त

    अ॒घद्वि॑ष्टा दे॒वजा॑ता वी॒रुच्छ॑पथ॒योप॑नी। आपो॒ मल॑मिव॒ प्राणै॑क्षी॒त्सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒घऽद्वि॑ष्टा । दे॒वऽजा॑ता । वी॒रुत् । श॒प॒थ॒ऽयोप॑नी । आप॑: । मल॑म्ऽइव । प्र । अ॒नै॒क्षी॒त् । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघद्विष्टा देवजाता वीरुच्छपथयोपनी। आपो मलमिव प्राणैक्षीत्सर्वान्मच्छपथाँ अधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघऽद्विष्टा । देवऽजाता । वीरुत् । शपथऽयोपनी । आप: । मलम्ऽइव । प्र । अनैक्षीत् । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. सामान्यत: वानस्पतिक भोजन सौम्यता को उत्पन्न करनेवाला व मांस-भोजन करवृत्ति को उत्पन्न करनेवाला है। वानस्पतिक भोजन में भी सात्त्विक, राजस् व तामस् भेद से भिन्नता है ही। इनमें वनस्पतियों के फल-मूल का संकेत करने के लिए यहाँ 'वीरुत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह एक लता विशेष है जो काटने पर और अधिक फैलती है [A plant which grows after being cut]। यह (अघद्विष्टा) = पाप से अनीति करनेवाली है। इसके प्रयोग से अन्त:करण शुद्ध वृत्तिवाला बनता है। उसमें पाप की रुचि नहीं होती, (देवजाता) = [देवानां जातं यस्याः] दिव्य गुणों का यह विकास करनेवाली है। (वीरुत्) = यह लता (शपथयोपनी) = आक्रोशों को दूर करनेवाली है। २. यह (मत्) = मुझसे (सर्वान् शपथान्) = सब आक्रोशों को (अधि) = अधिक्येन (प्र अनैक्षीत) = ऐसे धो डालती है (इव) = जैसेकि (आप:) = जल (मलम्) = मलों को धो डालता है।

    भावार्थ -

    लताओं के फूल-फल का प्रयोग करने से हममें आक्रोश की वृत्ति उत्पन्न नहीं होती।

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