Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 10

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१०

    कण्वा॑ इव॒ भृग॑वः॒ सूर्या॑ इव॒ विश्व॒मिद्धी॒तमा॑नशुः। इन्द्रं॒ स्तोमे॑भिर्म॒हय॑न्त आ॒यवः॑ प्रि॒यमे॑धासो अस्वरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कण्वा॑:ऽइव । भृग॑व: । सूर्या॑ऽइव । विश्व॑सु । इत् । धी॒तम् । आ॒न॒शु॒: ॥ इन्द्र॑म् । स्तोमे॑भि: । म॒हय॑न्त: । आ॒यव॑: । प्रि॒यमे॑धास: । अ॒स्व॒र॒न् ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कण्वा इव भृगवः सूर्या इव विश्वमिद्धीतमानशुः। इन्द्रं स्तोमेभिर्महयन्त आयवः प्रियमेधासो अस्वरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कण्वा:ऽइव । भृगव: । सूर्याऽइव । विश्वसु । इत् । धीतम् । आनशु: ॥ इन्द्रम् । स्तोमेभि: । महयन्त: । आयव: । प्रियमेधास: । अस्वरन् ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (कण्वा: इव) = मेधावी पुरुषों के समान तथा (सूर्याः इव) = सूर्यसम तेजस्वी व सूर्य के समान निरन्तर क्रियाशील (भृगव:) = तप की अग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले लोग (विश्वम्) = उस सर्वव्यापक [सर्वत्र विशति] (धीतम्) = ध्यान किये गये प्रभु को (इत्) = ही (आनशुः) = स्तोत्रों से प्राप्त करते हैं । २. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (स्तोमेभिः) = स्तुति-समूहों से (महयन्तः) = पूजते हुए (आयवः) = गतिशील (प्रियमेधास:) = बुद्धि-प्रिय मनुष्य (अस्वरन्) = स्तुतिशब्दों का उच्चारण करते.हैं। यह स्तवन ही उन्हें बुद्धिप्रिय व गतिशील बनाता है।

    भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करते हुए मेधावी व क्रियाशील बनें। यही सच्ची तपस्या है। कण्व व प्रियमेध बनें, सूर्य व आयु बनें। यही भृगु बनने का मार्ग है। भृगु ही प्रभु को प्रास करता है। यह उपासक सबका हित करनेवाला "विश्वामित्र' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि -

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top