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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 108

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 108/ मन्त्र 1
    सूक्त - नृमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०८

    त्वं न॑ इ॒न्द्रा भ॑रँ॒ ओजो॑ नृ॒म्णं श॑तक्रतो विचर्षणे। आ वी॒रं पृ॑तना॒षह॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । न॒: । इ॒न्द्र॒ । आ । भ॒र॒ । ओज॑: । नृ॒म्णम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ ॥ आ । वी॒रम् । पृ॒त॒ना॒ऽसह॑म् ॥१०८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं न इन्द्रा भरँ ओजो नृम्णं शतक्रतो विचर्षणे। आ वीरं पृतनाषहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । न: । इन्द्र । आ । भर । ओज: । नृम्णम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । विऽचर्षणे ॥ आ । वीरम् । पृतनाऽसहम् ॥१०८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 108; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्-परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (न:) = हमारे लिए (ओजः) = बल को तथा (नृम्णम्) = धन को (आभर) = प्राप्त कराइए। २. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले (विचर्षणे) = सबके द्रष्टा प्रभो! आप हमें (पृतनापहम्) = शत्रु-सेनाओं का अभिभव करनेवाले (वीरम्) = वीर सन्तान को आ [भर]-प्राप्त कराइए।

    भावार्थ - प्रभु का उपासन करते हुए हम बल, धन व वीर सन्तान को प्राप्त करके सुखी जीवनवाले हों।

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