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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 108/ मन्त्र 3
त्वां शु॑ष्मिन्पुरुहूत वाज॒यन्त॒मुप॑ ब्रुवे शतक्रतो। स नो॑ रास्व सु॒वीर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । शु॒ष्मि॒न् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । वा॒ज॒ऽयन्त॑म् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥ स: । न॒: । रा॒स्व॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥१०८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां शुष्मिन्पुरुहूत वाजयन्तमुप ब्रुवे शतक्रतो। स नो रास्व सुवीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । शुष्मिन् । पुरुऽहूत । वाजऽयन्तम् । उप । ब्रुवे । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ स: । न: । रास्व । सुऽवीर्यम् ॥१०८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 108; मन्त्र » 3
विषय - सुवीर्यम्
पदार्थ -
१.हे (शष्मिन्) = शत्रुओं के शोषक बल से सम्पन्न! (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्ति से सम्पन्न प्रभो! (वाजयन्तम्) = हमारे साथ बल का सम्पर्क करनेवाले (त्वाम्) = आपको ही (उपब्रुवे) = मैं समीपता से पुकारता हूँ। २. (स:) = उपासना किये गये वे आप (नः) = मारे लिए (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (रास्व) = दीजिए।
भावार्थ - सर्वशक्तिमान् प्रभु उपासक को भी शक्ति-सम्पन्न बनाते हैं। प्रभु हमारे लिए भी सुवीर्य को प्राप्त कराएँ। 'ओज-नृम्ण-सुम्न व सुवीर्य' को प्राप्त करनेवाला यह व्यक्ति प्रशस्त इन्द्रियोंवाला 'गो तम' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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