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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१०९

    स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्य:। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ मद॑न्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वा॒दो: । इ॒त्था । वि॒षु॒ऽवत॑: । मध्व॑: । पि॒ब॒न्ति॒ । गौ॒र्य: ॥ या: । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयाव॑री: । वृष्णा॑ । मद॑न्ति । शो॒भसे॑ । वस्वी॑: । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥१०९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वादोरित्था विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्य:। या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वादो: । इत्था । विषुऽवत: । मध्व: । पिबन्ति । गौर्य: ॥ या: । इन्द्रेण । सऽयावरी: । वृष्णा । मदन्ति । शोभसे । वस्वी: । अनु । स्वऽराज्यम् ॥१०९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 109; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (गौर्यः) = गौरवर्ण गौएँ, अर्थात् व्यसनों में अलिस शुद्ध इन्द्रियाँ (मध्वः) = सोम का (पिबन्ति) = पान करती है। आहार से उत्पन्न सोम को-वीर्यशक्ति को जब शरीर में ही सुरक्षित रखा जाता है तब यही इन्द्रियों का सोमपान होता है। इन्द्रियों उस सोम का पान करके जोकि (स्वादो:) = जीवन को स्वाद व माधुर्यवाला बनाता है और (इत्था) = इसप्रकार (विषुवतः) = सारे अंगों में व्याप्त हो जाता है। सब अंगों में व्याप्त होकर उन्हें सशक्त बनाता है। २. सोम-रक्षण से शक्ति-सम्पन्न बनी हुई इन्द्रियाँ वे होती हैं (याः) = जोकि (वृषणा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (इन्द्रेण) = इन्द्र के साथ (सयावरी:) = गति व प्राप्तिवाली होती हैं। सोमपान के अभाव में इन्द्रियाँ विषयोन्मुख होती हैं। सोमपान करने पर ये आत्मतत्त्व के दर्शन के लिए प्रवृत्त होती हैं। आत्मतत्त्व के दर्शन में प्रवृत्त ये इन्द्रियों (मदन्ति) = उल्लास से युक्त होती हैं। (शोभसे) = जीवन की शोभा के लिए होती हैं। (वस्वी:) = निवास को उत्तम करनेवाली होती हैं, परन्तु यह सब होता तभी है जबकि (अनु स्वराज्यम्) = मनुष्य आत्मशासन करनेवाला होता है। आत्मशासन के बाद ही सोम-रक्षण सम्भव होता है और तभी इन्द्रियों आत्मतत्त्व की ओर गति करती हैं, जीवन शोभामय होता है और हमारा इस शरीर में निवास उत्तमता को लिये हुए होता है।

    भावार्थ - हम संयमी बनें। इससे सोम-रक्षण होकर इन्द्रियों सशक्त बनेगी। ये हमें आत्मतत्व की ओर ले-चलेंगी। उस समय जीवन शोभामय व उत्तम बनेगा।

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