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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 109

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१०९

    ता अ॑स्य॒ नम॑सा॒ सहः॑ सप॒र्यन्ति॒ प्रचे॑तसः। व्र॒तान्य॑स्य सश्चिरे पु॒रूणि॑ पू॒र्वचि॑त्तये॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता: । अ॒स्य॒ । नम॑सा । सह॑ । स॒प॒र्यन्ति॑ । प्रऽचे॑तस: ॥ व्र॒तानि॑ । अ॒स्य॒ । स॒श्चि॒रे॒ । पु॒रूणि॑ । पू॒र्वऽचि॑त्तये । वस्वी॑: । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥१०९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अस्य नमसा सहः सपर्यन्ति प्रचेतसः। व्रतान्यस्य सश्चिरे पुरूणि पूर्वचित्तये वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता: । अस्य । नमसा । सह । सपर्यन्ति । प्रऽचेतस: ॥ व्रतानि । अस्य । सश्चिरे । पुरूणि । पूर्वऽचित्तये । वस्वी: । अनु । स्वऽराज्यम् ॥१०९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 109; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (ता:) = वे इन्द्रियाँ [गौर्यः] (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले (अस्य) = इस इन्द्र [जीवात्मा] के (सह:) = बल को (नमसा) = नमन से-विनीतता के द्वारा (सपर्यन्ति) = पूजित करती हैं। सोम का पान करनेवाली इन्द्रियाँ इन्द्र को सबल बनाती है और इसके बल को विनीतता से युक्त करती हैं। २. ये इन्द्रियाँ (अस्य) = इस इन्द्र के (पुरूणि) = पालन व पूरणात्मक (व्रतानि) = व्रतों को (सश्चिरे) = सेवित करती हैं। सोमपान करनेवाली इन्द्रियों के द्वारा ही हमारे सब पुण्यकर्म पूर्ण हुआ करते हैं। २. ये इन्द्रियाँ (पूर्वाचितये) = सृष्टि से पूर्व वर्तमान प्रभु के ज्ञान के लिए होती हैं। इनके द्वारा सृष्टि के पदार्थों में प्रभु की महिमा का दर्शन होकर प्रभु की सत्ता में हमारा विश्वास दृढ़ हो जाता है। इसप्रकार प्रभुसत्ता में विश्वास कराकर (वस्वी:) = ये इन्द्रियों उत्तम निवास को करानेवाली होती हैं। यह उत्तम निवास (स्वराज्यम् अनु) = आत्मशासन के अनुपात में ही होता है।

    भावार्थ - सोमपान करनेवाली इन्द्रियों हमें नम्रयुक्त बल प्राप्त कराती हैं। हमें व्रतमय जीवनवाला बनाकर प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती हैं। गौरी इन्द्रियोंवाला व्यक्ति अपने ज्ञान को बढ़ाकर उस ज्ञान को ही अपनी शरण बनाता है, अत: 'श्रुतकक्ष' कहलाता है-ज्ञान है शरण-स्थान [Hiding place] जिसका। यह उत्तम शरण स्थानवाला 'सुकक्ष' है। ये श्रुतकक्ष ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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