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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 110

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
    सूक्त - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११०

    इन्द्रा॑य॒ मद्व॑ने सु॒तं परि॑ ष्टोभन्तु नो॒ गिरः॑। अ॒र्कम॑र्चन्तु का॒रवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य॒ । मद्व॑ने । सु॒तम् । परि॑ । स्तो॒भ॒न्तु॒ । न॒: । गिर॑: ॥ अ॒र्कम् । अ॒र्च॒न्तु॒ । का॒रव॑: ॥११०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिरः। अर्कमर्चन्तु कारवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । मद्वने । सुतम् । परि । स्तोभन्तु । न: । गिर: ॥ अर्कम् । अर्चन्तु । कारव: ॥११०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 110; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. उस (मद्वने) = [मद्+वन] हर्ष का संभजन करनेवाले आनन्दस्वरूप (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिए (न: गिर:) = हमारी ज्ञान की वाणियाँ (सुतं परिष्टोभन्तु) = उत्पन्न हुए-हुए सोम को शरीर में ही चारों ओर रोकनेवाली हों [स्तोभते-Stops] | शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर ही प्रभु की प्राप्ति होती है। २. (कारव:) = क्रियाओं को कुशलता से करने के द्वारा प्रभु का अर्चन करनेवाले स्तोता (अर्कम्) = उस उपासनीय प्रभु का (अर्चन्तु) = पूजन करें। कर्तव्यकर्मों को करके उन्हें प्रभु के लिए अर्पित करना ही प्रभु का अर्चन है।

    भावार्थ - आनन्दमय प्रभु की प्राप्ति के लिए सोम का रक्षण आवश्यक है। सोम-रक्षण के लिए स्वाध्याय व प्रभु-स्तवन साधन बनते हैं।

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