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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
सूक्त - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-११०
यस्मि॒न्विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॒ रण॑न्ति स॒प्त सं॒सदः॑। इन्द्रं॑ सु॒ते ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । विश्वा॑: । अधि॑ । श्रिय॑: । रण॑न्ति । स॒प्त । स॒म्ऽसद॑: ॥ इन्द्र॑म् । सु॒ते । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्विश्वा अधि श्रियो रणन्ति सप्त संसदः। इन्द्रं सुते हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । विश्वा: । अधि । श्रिय: । रणन्ति । सप्त । सम्ऽसद: ॥ इन्द्रम् । सुते । हवामहे ॥११०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 110; मन्त्र » 2
विषय - 'श्री-पति' विष्णु
पदार्थ -
१. (यस्मिन) = जिन प्रभु में (विश्वाः श्रियः) = सब लक्ष्मियाँ (अधि) = आधिक्येन निवास करती हैं। जिस प्रभु के विषय में (सप्त) = सातों (संसदः) = होता 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' (रणन्ति) = स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं, उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को-सब इन्द्रियों को शक्ति देनेवाले प्रभु को (सुते) = इस सोम के सम्पादन व रक्षण के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। प्रभु ने ही वासना विनाश द्वारा इस सोम का रक्षण करना है।
भावार्थ - प्रभु ही सब विषयों के आधार हैं। प्रभु ही हमारी कर्ण आदि इन्द्रियों को श्रीसम्पन्न बनाते हैं। इस श्रीसम्पादन के लिए प्रभु ही हमारे शरीरों में सोम का रक्षण करते हैं।
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