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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
ता अ॑स्य पृशना॒युवः॒ सोमं॑ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। प्रि॒या इन्द्र॑स्य धे॒नवो॒ वज्रं॑ हिन्वन्ति॒ साय॑कं॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठता: । अ॒स्य॒ । पृ॒श॒न॒ऽयुव॑: । सोम॑म् । श्री॒ण॒न्ति॒ । पृश्न॑य: ॥ प्रि॒या: । इन्द्र॑स्य । धे॒नव॑: । वज्र॑म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । साय॑कम् ॥१०९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ता अस्य पृशनायुवः सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः। प्रिया इन्द्रस्य धेनवो वज्रं हिन्वन्ति सायकं वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठता: । अस्य । पृशनऽयुव: । सोमम् । श्रीणन्ति । पृश्नय: ॥ प्रिया: । इन्द्रस्य । धेनव: । वज्रम् । हिन्वन्ति । सायकम् ॥१०९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
विषय - 'सायक' वज्र
पदार्थ -
१. (ता:) = गतमन्त्र में वर्णित शुद्ध इन्द्रियों [गौर्य:] (अस्य) = इस आत्मतत्व के-इन्द्र के (पृशनायुव:) = [स्पर्शनकामा:] स्पर्शन की कामनावाली, (पृश्नयः) = [संस्पष्टो भासा नि० २.१४]-ज्योति से युक्त हुई-हुई (सोमम्) = सोम को (श्रीणन्ति) = शरीर में ही परिपक्व करती हैं। सोम को शरीर में सुरक्षित करके विविध शक्तियों का पोषण करती हैं। इस सोम-रक्षण से ही तो आत्मतत्त्व का स्पर्श करनेवाली हो पाएंगी। २. ऐसा होने पर (इन्द्रस्य) = इन इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव को (धेनवः) = ज्ञान-दुग्ध का पान करानेवाली वेदवाणियाँ (प्रिया:) = प्रिय होती हैं और वे वाणियों इसके जीवन में (सायकम्) = सब शत्रुओं का अन्त करनेवाले (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (हिन्वन्ति) = प्रेरित करती हैं, अर्थात् ये इसे क्रियाशील बनाती हैं। ३. इसप्रकार ये (वस्वी:) = उसे उत्तम निवासवाला बनाती है। ये उसे (स्वराज्यम् अनु) = आत्मशासन के बाद उत्तम निवासवाला बनाती हैं। जितना जितना आत्मशासन होता है, उतना-उतना ही जीवन उत्तम बनता है।
भावार्थ - शरीर में सोम के परिपाक से इन्द्रियाँ आत्मदर्शन करानेवाली होती हैं। सोमपान करनेवाले इस पुरुष को वेदवाणियाँ प्रिय होती हैं। यह उनमें उपदिष्ट कर्मों को करनेवाला होता है। इन कर्मों में लीन हुआ-हुआ यह वासनाओं का शिकार नहीं होता।
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