Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 114

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    सूक्त - सौभरिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११४

    नकी॑ रे॒वन्तं॑ स॒ख्याय॑ विन्दसे॒ पीय॑न्ति ते सुरा॒श्व:। य॒दा कृ॒णोषि॑ नद॒नुं समू॑ह॒स्यादित्पि॒तेव॑ हूयसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकि॑: । रे॒वन्त॑म् । स॒ख्याय॑ । वि॒न्द॒से॒ । पीब॑न्ति । ते॒ । सु॒रा॒श्व॑: ॥ य॒दा । कृ॒णोषि॑ । न॒द॒नुम् । सम् । ऊ॒ह॒सि॒ । आत् । इत् । पि॒ताऽइ॑व । हू॒य॒से॒ ॥११४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकी रेवन्तं सख्याय विन्दसे पीयन्ति ते सुराश्व:। यदा कृणोषि नदनुं समूहस्यादित्पितेव हूयसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकि: । रेवन्तम् । सख्याय । विन्दसे । पीबन्ति । ते । सुराश्व: ॥ यदा । कृणोषि । नदनुम् । सम् । ऊहसि । आत् । इत् । पिताऽइव । हूयसे ॥११४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 114; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो। आप (रेवन्तम्) = धनवान् को-यज्ञ आदि में धन का विनियोग न करनेवाले पुरुष को (सख्याय) = मित्रता के लिए (नकिः बिन्दसे) = नहीं प्राप्त करते। ऐसे अयज्ञशील धनी के आप कभी मित्र नहीं होते। (ते) = वे (सुराश्वः) = [सुर ऐश्वर्य] ऐश्वर्य से फूलनेवाले लोग (पीयन्ति) = हिंसात्मक कर्मों में प्रवृत होते हैं। अभिमान में खूब फूले हुए ये लोग प्रभु को भूल जाते हैं । २. (यदा) = जब आप (नदनुं कृणोषि) = गर्जना करते हैं, अर्थात् जब जरा भूकम्प-सा आता है तब सब सम्पत्ति हिलती-सी प्रतीत होती है तब आप (समूहसि) = [change, modify] उनके जीवन में परिवर्तन लाते हैं। (आत् इत्) = उस समय ही (पिता इव हूयसे) = पिता के समान आप पुकारे जाते हैं। वे धनी व्याकुलता होने पर परिवर्तित जीवनवाले बनते हैं और प्रभु की ओर झुकाववाले हो जाते हैं।

    भावार्थ - जो धनी धन के मद में फूले हुए हिंसात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, प्रभु उनके कभी मित्र नहीं होते। जब कभी सम्पत्ति विनष्ट होने लगती है, तभी ये धनी व्याकुल होकर प्रभु का स्मरण करते हैं और पिता की तरह प्रभु को पुकारते हैं। सम्पत्ति में भी प्रभु का स्मरण करनेवाला प्रभु का प्रिय बनता है, अत: 'वत्स' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top