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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 114

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 114/ मन्त्र 1
    सूक्त - सौभरिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११४

    अ॑भ्रातृ॒व्योऽअ॒ना त्वमना॑पिरिन्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि। यु॒धेदा॑पि॒त्वमि॑च्छसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भ्रा॒तृ॒भ्य: । अ॒ना । त्वम् । अना॑पि: । इ॒न्द्र॒ । ज॒नुषा॑ । स॒नात् । अ॒सि॒ ॥ यु॒धा । इत् । आ॒पि॒ऽत्वम् । इ॒च्छ॒से॒ ॥११४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्रातृव्योऽअना त्वमनापिरिन्द्र जनुषा सनादसि। युधेदापित्वमिच्छसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभ्रातृभ्य: । अना । त्वम् । अनापि: । इन्द्र । जनुषा । सनात् । असि ॥ युधा । इत् । आपिऽत्वम् । इच्छसे ॥११४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 114; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (त्वम्) = आप (अभ्रातृव्य:) = शत्रुरहित (असि) = हैं तथा (जनुषा) = पूर्णरूप से शक्तियों के प्रादुर्भाव के द्वारा (सनात्) = सदा से ही (अना) = अनेतृक व (अनापि:) = अबन्धु [असि] हैं। आप सबके नेता हैं-आपका कोई नेता नहीं। आपके समान शक्तियोंवाला कोई और नहीं, अत: समानता के अभाव में आपका कोई बन्धु भी नहीं। आप उपासकों के मित्र अवश्य होते हैं, परन्तु (युधा) = युद्ध के द्वारा (इत्) = ही (आपित्वम्) = मित्रभाव को (इच्छसे) = चाहते है, अर्थात् जब एक व्यक्ति 'काम-क्रोध-लोभ' आदि से युद्ध करता है, इन्हें जीतने का प्रयत्न करता है, तभी प्रभु इसके मित्र होते हैं। प्रभु जितनी पूर्णता कठिन है, परन्तु उस पूर्णता की ओर चलनेवाला ही प्रभु की मित्रता का पात्र होता है।

    भावार्थ - प्रभु शत्रुरहित हैं। प्रभु का कोई नेता नहीं, वे सबके नेता हैं। समानता के द्वारा कोई प्रभु का बन्धु नहीं-प्रभु की बाराबरी का नहीं। जो भी 'काम, क्रोध, लोभ' आदि से संर्घष करता है, यह प्रभु का मित्र बन पाता है।

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