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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव। वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥
स्वर सहित पद पाठमा । भू॒म॒ । निष्ट्या॑:ऽइव । इन्द्र॑ । त्वत् । अर॑णा:ऽइव ॥ वना॑नि । न । प्र॒ऽज॒हि॒तानि॑ । अ॒द्रि॒ऽव॒: । दु॒रोषा॑स: । अ॒म॒न्म॒हि॒ ॥११६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव। वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥
स्वर रहित पद पाठमा । भूम । निष्ट्या:ऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणा:ऽइव ॥ वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽव: । दुरोषास: । अमन्महि ॥११६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
विषय - मा भूम निष्टयाः इव
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! हम (निष्टयाः इव) = घर से बहिष्कृत-से (मा भूम) = न हो जाएँ। आप ही तो हमारे सच्चे माता व पिता हैं। हम आपसे दूर न हो जाएँ और परिणामत: (त्वत्) = आपसे (अरणा:) = [अरमणा:] आनन्द को न प्रास होनेवाले न हो जाएँ। हमें आपकी उपासना में ही आनन्द आये। २. इसप्रकार आपसे बहिष्कृत न हुए-हुए और आपकी उपासना में आनन्द लेनेवाले हम (प्रजहितानि) = शाखा-पत्र आदि से (त्यक्त) = क्षीण (वनानि न) = वनों की भौति [मा भूम] मत हो जाएँ, अर्थात् हम पुत्र-पौत्रों से वियुक्त-से न हो जाएँ। हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो! हम (दुरोषास:) = सब बुराइयों को दग्ध करनेवाले होते हुए (अमन्महि) = आपका स्तवन करते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु से बहिष्कृत न हो जाएँ। प्रभु की उपासना में ही आनन्द का अनुभव करें। पुत्र-पौत्रों से भरे परिवारवाले हों और बुराइयों का दहन करते हुए आपका स्तवन करनेवाले बनें।
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