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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 116

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-११६

    अम॑न्म॒हीद॑ना॒शवो॑ऽनु॒ग्रास॑श्च वृत्रहन्। सु॒कृत्सु ते॑ मह॒ता शू॑र॒ राध॒सानु॒ स्तोमं॑ मुदीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अम॑न्महि । इत् । अ॒ना॒शव॑: । अ॒नु॒ग्रास॑: । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् ॥ सु॒कृत् । सु । ते॒ । म॒ह॒ता । शू॒र॒ । राध॑सा । अनु॑ । स्तोम॑म् । मु॒दी॒म॒हि॒ ॥११६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन्। सुकृत्सु ते महता शूर राधसानु स्तोमं मुदीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमन्महि । इत् । अनाशव: । अनुग्रास: । च । वृत्रऽहन् ॥ सुकृत् । सु । ते । महता । शूर । राधसा । अनु । स्तोमम् । मुदीमहि ॥११६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 116; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (वृत्रहन्) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! (अनाशव:) = बहुत हबड़-दबड़ में न पड़े हुए, अर्थात् शान्तभाव से सब कार्यों को करते हुए (च) = और (अनुग्रास:) = उन व क्रूर, क्रोधी वृत्तिवाले न होते हुए हम (इत) = निश्चय से (अमन्महि) = आपका मनन व स्तवन करते हैं। २. हे (शूर) = हमारे शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (सकृत्) = एक बार तो (ते) = आप से दिये गये (महता राधसा) = इस महान् जानैश्वर्य के साथ (स्तोमम् अनु) = आपके स्तवन के अनुपात में (सु मुदिमहि) = उत्तम आनन्द का अनुभव करें। ज्ञानपूर्वक आपका स्तवन हमें आनन्दित करनेवाला हो।

    भावार्थ - हम शान्त व मृदु स्वभाव बनकर प्रभु का स्तवन करते हैं। ज्ञानपूर्वक किये जाते हुए इन प्रभु-स्तवनों में ही आनन्द का अनुभव करते हैं। यह ज्ञानी स्तोता अतिशयेन उत्तम जीवनवाला बनता है, अतः 'वसिष्ठ' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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