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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 117

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११७

    पिबा॒ सोम॑मिन्द्र॒ मन्द॑तु त्वा॒ यं ते॑ सु॒षाव॑ हर्य॒श्वाद्रिः॑। सो॒तुर्बा॒हुभ्यां॒ सुय॑तो॒ नार्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पिब॑ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । मन्द॑तु । त्वा॒ । यम् । ते॒ । सु॒साव॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । अद्रि॑: ॥ सो॒तु: । बा॒हुऽभ्या॑म् । सुऽय॑त: । न । अर्वा॑ ॥११७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिबा सोममिन्द्र मन्दतु त्वा यं ते सुषाव हर्यश्वाद्रिः। सोतुर्बाहुभ्यां सुयतो नार्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिब । सोमम् । इन्द्र । मन्दतु । त्वा । यम् । ते । सुसाव । हरिऽअश्व । अद्रि: ॥ सोतु: । बाहुऽभ्याम् । सुऽयत: । न । अर्वा ॥११७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 117; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (सोमं पिब) = अपने अन्दर इस सोम का पान कर-इसे तू शरीर में ही व्याप्त कर। यह (त्वा मन्दतु) = तुझे आनन्दित करनेवाला हो। हे हर्यश्व कमनीय इन्द्रियाश्वोंवाले इन्द्र ! उस सोम का तू पान कर (यम्) = जिसको (ते) = तेरे लिए (अद्रिः) = उस आदरणीय प्रभु ने (सुषाव) = उत्पन्न किया है। प्रभु से उत्पन्न किये गये इस सोम का समुचित रक्षण करना ही चाहिए। २. वह सोम (सोतु:) = स्तोता की-उत्पन्न करनेवाले की (बाहुभ्याम्) = बाहुओं से (सुयत:) = सम्यक् यत होता है, अर्थात् यदि सोम का सम्पादन करनेवाला यह व्यक्ति क्रियाशील बना रहता है तो वह वासनाओं से आक्रान्त न होकर इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर पाता है। रक्षित हुआ-हुआ यह सोम (न अर्वा) = हिंसित करनेवाला नहीं होता [अर्व to kill] रोगकृमियों का संहार करता हुआ यह सोम हमारा रक्षण ही करता है।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम आनन्द की वृद्धि का कारण बनता है। यह हमें रोगों से हिंसित नहीं होने देता। सतत क्रियाशील बने रहना ही सोम-रक्षण का साधन है।

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