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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 119/ मन्त्र 2
तु॑र॒ण्यवो॒ मधु॑मन्तं घृत॒श्चुतं॒ विप्रा॑सो अ॒र्कमा॑नृचुः। अ॒स्मे र॒यिः प॑प्रथे॒ वृष्ण्यं॒ शवो॒ऽस्मे सु॑वा॒नास॒ इन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठतु॒र॒ण्यव॑: । मधु॑ऽमन्तम् । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । विप्रा॑स: । अ॒र्कम् । आ॒नृ॒चु॒: ॥ अ॒स्मे इति॑ । र॒यि: । प॒प्र॒थे॒ । वृष्ण्य॑म् । शव॑: । अ॒स्मे इति॑ । सु॒वा॒नास॑: । इन्द॑व: ॥११९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तुरण्यवो मधुमन्तं घृतश्चुतं विप्रासो अर्कमानृचुः। अस्मे रयिः पप्रथे वृष्ण्यं शवोऽस्मे सुवानास इन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठतुरण्यव: । मधुऽमन्तम् । घृतऽश्चुतम् । विप्रास: । अर्कम् । आनृचु: ॥ अस्मे इति । रयि: । पप्रथे । वृष्ण्यम् । शव: । अस्मे इति । सुवानास: । इन्दव: ॥११९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 119; मन्त्र » 2
विषय - तुरण्यवः-विप्रास:
पदार्थ -
१. (तुरण्यवः) = क्षिप्रकारी, कर्मकुशल (विप्रासः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले लोग (मधुमन्तम्) = अत्यन्त माधुर्यवाले (घृतश्चुतम्) = हमारे जीवनों में दीप्ति को आसिक्त करनेवाले (अर्कम्) = पूजनीय प्रभु का (आनचः) = अर्चन करते हैं। २. इस प्रभु के अर्चन से (अस्मे) = हमारे लिए (रयिःपप्रथे) = ऐश्वर्य का विस्तार होता है। वृष्ण्यं शवः हमें सुखों का सेचन करनेवाला बल प्राप्त होता है। (अस्मे) = हमारे लिए (सुवानासः) = उत्पन्न होते हुए सोमकण (इन्दव:) = शक्तिशाली बनानेवाले होते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु का अर्चन करें। हमें इस अर्चन से ऐश्वर्य व शक्ति प्राप्त होगी। हमारे अन्दर सुरक्षित सोमकण हमें तेजस्वी व ओजस्वी बनाएंगे। प्रभु की उपासना जीवन को मधुर व ज्ञानदीत बनाती है। यह प्रभु का उपासक अन्ततः 'देवातिथि' बनता है-प्रभु को अपना अतिथि बनाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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