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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 120/ मन्त्र 1
यदि॑न्द्र॒ प्रागपा॒गुद॒ङ्न्यग्वा हू॒यसे॒ नृभिः॑। सिमा॑ पु॒रू नृषू॑तो अ॒स्यान॒वेऽसि॑ प्रशर्ध तु॒र्वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । प्राक् । अपा॑क् । उद॑क् । न्य॑क् । वा॒ । हू॒यसे॑ । नृऽभि॑: ॥ सिम॑ । पु॒रू । नृऽसू॑त: । अ॒सि॒ । आन॑वे । असि॑ । प्र॒ऽश॒र्ध॒ । तु॒र्वशे॑ ॥१२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र प्रागपागुदङ्न्यग्वा हूयसे नृभिः। सिमा पुरू नृषूतो अस्यानवेऽसि प्रशर्ध तुर्वशे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्र । प्राक् । अपाक् । उदक् । न्यक् । वा । हूयसे । नृऽभि: ॥ सिम । पुरू । नृऽसूत: । असि । आनवे । असि । प्रऽशर्ध । तुर्वशे ॥१२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 120; मन्त्र » 1
विषय - सर्वव्यापक प्रभु
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। (यत्) = जो आप (अपाग्) = पूर्व व पश्चिम में (उदग् न्यग् वा) = वा उत्तर व दक्षिण में (नृभिः) = मनुष्यों से (हूयसे) = पुकारे जाते हैं। वे आप (सिमः) = सब दिशाओं में विद्यमान है। आप कहाँ नहीं हैं? आप (पुरू) = खूब ही (नृषूतः असि) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों के सारथि है। २. (आनवे) = [अन प्राणने] आप इन नर मनुष्यों को प्राणित व उत्साहित करनेवाले हैं। हे (प्रशर्ध) = प्रकृष्ट शक्ति-सम्पन्न प्रभो! आप (तुर्वशे असि) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करने के लिए होते हैं। प्रभु का भक्त प्रभु से शक्ति व उत्साह प्राप्त करके शत्रुओं को शीघ्रता से वश में करनेवाला होता है।
भावार्थ - प्रभ सर्वव्यापक हैं। उन्नति-पथ पर चलनेवालों के पथ के सारथि होते हैं। उन्हें उत्साह व शक्ति देते हैं। शत्रुओं को वशीभूत करनेवाले हैं।
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