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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
रे॒वती॑र्नः सध॒माद॒ इन्द्रे॑ सन्तु तु॒विवा॑जाः। क्षु॒मन्तो॒ याभि॒र्मदे॑म ॥
स्वर सहित पद पाठरे॒वती॑: । न॒: । स॒ध॒ऽमादे॑ । इन्द्रे॑ । स॒न्तु॒ । तु॒विऽवा॑जा: ॥ क्षु॒ऽमन्त॑: । याभि॑: । मदे॑म ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रेवतीर्नः सधमाद इन्द्रे सन्तु तुविवाजाः। क्षुमन्तो याभिर्मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठरेवती: । न: । सधऽमादे । इन्द्रे । सन्तु । तुविऽवाजा: ॥ क्षुऽमन्त: । याभि: । मदेम ॥१२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 1
विषय - 'सधमादः क्षुमन्तः' तुविवाजा:
पदार्थ -
१. (इन्द्रे) = इन्द्र के हमारे होने पर, अर्थात् जब हम प्रभु की ही कामना करेंगे और प्रभु को अपनाएँगे तब (न:) = हमारे (रेवती:) = प्रशस्त धनोंवाले (तुविवाजा:) = प्रभूत अन्न (सन्तु) = हों, जो अन्न (सधमादः) = साथ मिलकर हमें आनन्द देनेवाले हों, अर्थात् वे अन्न हमारे हों, जिनको हम स्वयं ही सारों को न खा जाएँ, अपितु औरों के साथ बाँटकर ही खानेवाले हों। २. ये अन्न (क्षुमन्त:) = भूखवाले हों, अर्थात् इन अन्नों को हम इस रूप में सेवन करें कि इनके अतियोग से हमारी भूख ही न समास हो जाए और इसप्रकार ये अन्न ऐसे हों कि (याभि:) = जिनसे नीरोग व सशक्त बने हुए हम (मदेम) = हर्ष का अनुभव करें। ३. प्रभु-प्रवण व्यक्ति को [क] निर्धनता का कष्ट नहीं सहना पड़ता [रेवती:], [ख] साथ ही धनी होकर कृपण नहीं होता, miser बनकर miserable life वाला नहीं हो जाता [सधमादः], [ग] इन धनों व अन्नों से विलासमय जीवनवाला बनकर रोगी भी नहीं हो जाता [क्षुमन्तः]। संक्षेप में वह धनी होता हुआ न तो इनका अतियोग करता है, न अयोग, अपितु यथायोग से चलता हुआ आनन्दमय जीवन वाला होता है।
भावार्थ - प्रभु-प्रवण व्यक्ति को वे अन्न व धन प्राप्त होते हैं, जिनका वह औरों के साथ मिलकर उपभोग करता है। वे अन्न व धन उसे अपने में आसक्त करके अतियोग से रुग्ण नहीं कर देते। परिणामतः इनसे वह आनन्द ही प्राप्त करता है।
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