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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॒ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॒षत्। त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । त्वा॒ । कर्म॑न् । ऊ॒तये॑ । स: । न॒: । युवा॑ । उ॒ग्र: । च॒क्रा॒म॒: । य: । धृ॒षत् ॥ त्वाम् । इत् । हि । अ॒वि॒तार॑म् । व॒वृ॒महे॑ । सखा॑य: । इ॒न्द्र॒ । सा॒न॒सिम् ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा कर्मन्नूतये स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत्। त्वामिद्ध्यवितारं ववृमहे सखाय इन्द्र सानसिम् ॥
स्वर रहित पद पाठउप । त्वा । कर्मन् । ऊतये । स: । न: । युवा । उग्र: । चक्राम: । य: । धृषत् ॥ त्वाम् । इत् । हि । अवितारम् । ववृमहे । सखाय: । इन्द्र । सानसिम् ॥१४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
विषय - सानसिम्-अवितारम्
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (त्वाम्) = आपको (कर्मन्) = युद्ध आदि कर्मों के प्रस्तुत होने पर (ऊतये) = रक्षा के लिए (उप) = समीपता से प्रास होते हैं। (य:) = जो (धृषत्) = शत्रुओं का धर्षक है, (सः) = वह (युवा) = बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को हमसे मिलानेवाला, (उग्रः) = उद्गूर्ण बलवाला इन्द्र (न:) = हमें (चक्राम) = प्राप्त होता है [क्रामति]-सहायकरूप से हमारे समीप आता है। २. हे इन्द्र! परमैश्वर्यशाली परमात्मन्। (सानसिम्) = [सम्भक्तारम्] सब वस्तुओं के देनेवाले (अवितारम्) = रक्षक (त्वाम् इत् हि) = आपको ही (सखायः) = मित्र बनाते हुए (ववृमहे) = वरण करते हैं।
भावार्थ - हम सम्भजनीय, रक्षक प्रभु का ही वरण करते हैं। प्रभु हमें प्राप्त होते हैं और हमारा रक्षण करते हैं। प्रभु ही हमें सब कार्यों में विजय प्राप्त कराते हैं।
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