Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑। वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वाम् । अ॒पू॒र्व्य॒ । स्थू॒रम् । न । कत् । चि॒त् । भर॑न्त: । अ॒व॒स्यव॑: ॥ वाजे॑ । चि॒त्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यवः। वाजे चित्रं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । ऊं इति । त्वाम् । अपूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्त: । अवस्यव: ॥ वाजे । चित्रम् । हवामहे ॥१४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
विषय - अपूर्व्य-कत्-चित्
पदार्थ -
१. हे (अपूर्व्य) = [अपूर्वेण साधुः] अद्भुतों में उत्तम, अद्भुत-तम प्रभो! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (त्वाम्) = आपको (भरन्त:) = अपने में धारण करते हुए (अवस्यवः) = रक्षा की कामनावाले होते हैं। आपने ही तो हमारा रक्षण करना है। २. (स्थूरं न) = एक शक्तिशाली के समान (चित्रम्) = ज्ञान देनेवाले [चित्+र] (कश्चित्) = [कत् चित्] आनन्दमय चिद्रूप आपको (वाजे) = शक्ति-प्राप्ति के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। आपसे-शक्ति प्राप्त करके ही हम जीवन-संग्राम में सफल होंगे। आप शक्ति देते हैं, ज्ञान देते हैं और इसप्रकार हमारे जीवन को आनन्दमय बनाते हैं।
भावार्थ - हम अद्भुत-तम, शक्तिशाली, आनन्दमय, ज्ञानी प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु से ही शक्ति व ज्ञान को प्राप्त करके हम जीवन-संग्राम में सफल होते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें