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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत। आ तु॑ नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठहरि॑ऽअश्वम् । सत्ऽप॑तिम् । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । स: । हि । स्म॒ । य: । अम॑न्दत ॥ आ । तु । न॒: । स: । व॒य॒ति॒ । गव्य॑ति । गव्य॑म् । अश्व्य॑म् । स्तो॒तृऽभ्य॑: । म॒घऽवा॑ । श॒तम् ॥१४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
हर्यश्वं सत्पतिं चर्षणीसहं स हि ष्मा यो अमन्दत। आ तु नः स वयति गव्यमश्व्यं स्तोतृभ्यो मघवा शतम् ॥
स्वर रहित पद पाठहरिऽअश्वम् । सत्ऽपतिम् । चर्षणिऽसहम् । स: । हि । स्म । य: । अमन्दत ॥ आ । तु । न: । स: । वयति । गव्यति । गव्यम् । अश्व्यम् । स्तोतृऽभ्य: । मघऽवा । शतम् ॥१४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
विषय - 'हर्यश्व' प्रभु
पदार्थ -
१. (हर्यश्वम्) = दुःखों का हरण करनेवाले, इन्द्रियाश्वों को देनेवाले, (सत्पतिम्) = सज्जनों के रक्षक, (चर्षणीसहम्) = सब मनुष्यों के अभिभविता, अर्थात् नियन्ता उस प्रभु का हम स्तवन करते हैं। (सः) = वह प्रभु (हि) = ही (स्म) = निश्चय से स्तुत्य हैं। (य:) = जो (अमन्दत) = आनन्दमय होते हुए स्तोताओं को आनन्दित करते हैं। २. सः( मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (तु) = तो (न: स्तोतृभ्यः) = हम स्तोताओं के लिए (शतम्) = शतवर्षपर्यन्त (गव्यम्) = ज्ञानेन्द्रियों के समूह को तथा (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रियों के समूह हो (आवयति) = प्राप्त कराते है[वी गत्यादिषु]।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमारे लिए उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं। प्रशस्त इन्द्रियों को प्राप्त करनेवाला स्तोता 'गोतम है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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