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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१३

    ऐभि॑रग्ने स॒रथं॑ याह्य॒र्वाङ्ना॑नार॒थं वा॑ वि॒भवो॒ ह्यश्वाः॑। पत्नी॑वतस्त्रिं॒शतं॒ त्रींश्च॑ दे॒वान॑नुष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ए॒भि॒: । अ॒ग्ने॒ । स॒ऽरथ॑म् । या॒हि॒ । अ॒र्वा॒ङ् । ना॒ना॒ऽर॒थम् । वा॒ । वि॒ऽभव॑: । हि । अश्वा॑: ॥ पत्नी॑ऽवत: । त्रिं॒शत॑म् । त्रीन् । च॒ । दे॒वान् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । आ । व॒ह॒ । मा॒दय॑स्व ॥१३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऐभिरग्ने सरथं याह्यर्वाङ्नानारथं वा विभवो ह्यश्वाः। पत्नीवतस्त्रिंशतं त्रींश्च देवाननुष्वधमा वह मादयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । एभि: । अग्ने । सऽरथम् । याहि । अर्वाङ् । नानाऽरथम् । वा । विऽभव: । हि । अश्वा: ॥ पत्नीऽवत: । त्रिंशतम् । त्रीन् । च । देवान् । अनुऽस्वधम् । आ । वह । मादयस्व ॥१३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 13; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (ऐभिः) = इन सब देवों के साथ आप (सरथम्) = समान शरीर-रथ में (अर्वाङ्) = आभिमुख्येन (आयाहि) = प्राप्त होइए। (नानारथम्) = विविध शक्तियों [देवों] से युक्त होने के कारण उस-उस देव के रथ के रूप में इस नानारथरूप शरीर को आप (वा) = निश्चय से प्रास होइए। (अश्वा:) = इस शरीर-रथ के ये इन्द्रियाश्व (हि) = निश्चय से (विभव:) = विशिष्ट शक्ति से युक्त हैं। प्रभु की उपासना इन्हें शक्तिशाली बनती ही है। २.हे प्रभो। आप (पत्नीवतः) = सपत्नीक शक्तिरूप पत्नियों से युक्त-इन (त्रिंशतं त्रीन् च) = तीस और तीन-तेतीस (देवान्) = देवों को (अनुष्वधम्) = स्वधा का-आत्मधारण-शक्ति का लक्ष्य करके (आवह) = प्राप्त कराइए और (मादयस्व) = हमारे जीवनों को आनन्दित कीजिए। शरीर पृथिवीलोक है, हदय अन्तरिक्षलोक है, मस्तिष्क धुलोक है। इन लोकों में ११-११ देवों का निवास है। प्रभु की उपासना से ये सब देव हमारे शरीर में उपस्थित होते हैं 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते'। आँख में सूर्य, नासिका में वायु, मुख में अग्नि, बदय में चन्द्रमा और इसी प्रकार अन्य सब देवों की शरीर में स्थिति है। इनके साथ चौंतीसवाँ महादेव होता है। इस शरीर को धारण करनेवाला यह उपासक "विश्वामित्र' होता है-सबके प्रति स्नेहवाला-कटुता से शून्य।

    भावार्थ - सब देवों के साथ प्रभु हमें इस शरीर में प्राप्त हों। हमारा यह शरीर देव-मन्दिर बने। इस मन्दिर के पुजारी हम 'विश्वामित्र' बनें। गत सूक्त के अनुसार यदि मैं प्रथमाश्रम में वामदेव'-सुन्दर दिव्यगुणोंवाला बनने का प्रयत्न करता हूँ। द्वितीया श्राम में इन्द्रियों को विषयों में न फंसने देकर 'गोतम' बनता हूँ, तथा तृतीय आश्रम में बासनाओं का पूर्ण संहार करके 'कुत्स' होता हूँ और चौथे आश्रम में 'विश्वामित्र' बनता हूँ तो मैं सचमुच 'सोभरि' हूँ-जिसने अपना उत्तम भरण किया है। यह "सोभरि' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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